मनोज झा का ठाकुरनामा, बैकफुट पर तेजस्वी और नीतीश कुमार !
बिहार में बवाल है, सबकी एक मिशाल है। बिहार देश का एक ऐसा प्रदेश है, जहाँ गाहे-बगाहे जातियों को लेकर अकसर कुछ ना कुछ होता ही रहता है। जातीय संघर्ष वहां की नियति बन चुकी है।
Bihar me Thakur Par Vivad |
हालांकि कुछ वर्षों से जातिगत लड़ाइयों पर एक तरह से विराम सा लग गया था ,लेकिन राष्ट्रीय जनता दल के राज्य सभा सांसद मनोज झा ने एक ऐसी कविता पढ़ दी है, जिसके बाद बिहार में एक बार फिर, जातीय संघर्ष के आसार बनते दिखाई देने लगे हैं। इस बार फर्क सिर्फ इतना है कि पहले जहाँ अगड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच संघर्ष हुआ करते थे, वहीँ इस बार अगड़ी जातियां ही शायद आपस में लड़ने की तैयारी करने लगी हैं। हालांकि अभी तक यह लड़ाई तीखे शब्दों के जरिए ही लड़ी जा रही है। लेकिन जिस तरह से अगड़ी जातियों के दो पक्ष आमने-सामने आ गए हैं, उसका असर बिहार की राजनिति में देखने को जरूर मिलेगा। अगर यह लड़ाई जल्दी ही शांत नहीं कराई गई तो आगामी चुनाव में I.N.D.I.A गठबंधन को इसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है। दरअसल इसकी शुरुवात हुई राज्य सभा में महिला बिल पारित होने के दौरान। राजद के रज्यसभा सांसद मनोज झा ने एक कविता सुना दी। जो इस प्रकार है।
चूल्हा मिट्टी का,
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मोहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या
गांव?
देश?
शहर?"
हालांकि मनोज झा, इस कविता के जरिए कुछ और बताने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कहना न होगा, यहां वह चूक गए। क्रिकेट की भाषा में समझें, तो एक अच्छा बल्लेबाज जब बैटिंग करता है और उसके बल्ले से रन आसानी से बनने लगते हैं तो,कभी-कभी वह कुछ ऐसे शॉट्स मारने का प्रयास करने लगता है जो जोखिम भरा होता है। ऐसी स्थिति में वह बल्लेबाज ना सिर्फ आउट हो जाता है बल्कि अपनी टीम को भी मुशीबत में डालकर चला जाता है। आज कमोबेश यही स्थिति मनोज झा की है। अच्छा बोलने के चक्कर में उन्होंने कुछ ज्यादा ही बोल दिया। पिछले कुछ वर्षों में राज्य सभा की कार्यवाही के दौरान उनके द्वारा दिए गए वक्तव्यों को लोगों ने बहुत सराहा है। उन्हें अच्छे सांसद होने का पुरष्कार भी मिला है। अपनी पार्टी राजद के पक्षों को राज्यसभा में उन्होंने बखूबी से रखा है। अपनी सधी हुई टिप्पणियों से उन्होंने अन्य सांसदों की वाहवही भी लूटी है, लेकिन इस बार उन्होंने एक ऐसी चूक कर दी है, जो शायद उनकी पार्टी राजद को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है!
सबसे गलत बात यह है कि इस लड़ाई में एक तरफ ब्राह्मण और दूसरी तरफ ठाकुर हैं, और वाद-विवाद करने वाले दोनों ही पक्ष राजद से ताल्लुक रखते हैं। यानी मनोज झा ने ठाकुरों पर जो कविता सुनाई है, उस पर अन्य किसी पार्टी के ठाकुर नेता का रिएक्शन नहीं आया है। रिएक्शन आया है, राजद के बाहुबली नेता आनंद मोहन के बेटे और राजद विधायक चेतन आंनद का। बहरहाल कविता 'ठाकुर का कुंआ' की रचना की थी ओमप्रकाश वाल्मीकि ने, जो दलित समाज से ताल्लुक़ रखते थे। देश में वर्षों पहले ऐसी व्यवस्था बन गई थी, जहाँ दलितों और पिछड़ों को किसी विशेष जाति यानी कथित तौर पर ठाकुर वर्ग के कुछ लोगों द्वारा उत्पीड़न किया जाता था।
उत्पीड़न की बातें कहानियों तक ही सीमित नहीं थीं। व्यावहारिक रूप से भी देखने को मिलती थीं। जातीय व्यवस्था के तहत जातियों को चार वर्गों में विभाजित किया गया था ,जो आज भी चल रही हैं। ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र ,इन चार वर्गों में ठाकुर का कहीं जिक्र नहीं था। ठाकुर शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई ,कैसे हुई इस पर शायद ही किसी ने साफ तौर से कुछ बताया हो। हमारी हिंदी फिल्मों में ठाकुर शब्द का खूब उपयोग हुआ। बल्कि ठाकुर शब्द की छवि खराब करने में हिंदी फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। वैसे भगवान् श्री कृष्ण को भी ठाकुर कहते हैं। क्षत्रिय समाज के लोग आज तक उन हिंदी फिल्मों का विरोध नहीं कर पाए, जिसमें ठाकुर की छवि खराब करने की कोशिश की गई।
बहरहाल इस कविता के रचयिता ने शायद वैसी व्यवस्था को देखा ही नहीं बल्कि महशूश भी किया होगा, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी कविता के माध्यम से की होगी। उन्होंने इस कविता के माध्यम से अपने समाज के लोगों को जागरूक करने की कोशिश की होगी, लेकिन मनोज झा ने किसे जागरूक करने के लिए गड़े मुर्दे को उखाड़ने की कोशिश की है। समझ से परे है। आगामी लोकसभा चुनाव बेहद करीब है, ऐसे में राजद और जदयू जो कि I.N.D.I.A गठबंधन के मजबूत दल हैं, उन्हें बैकफुट पर लाकर खड़ा दिया है। अब देखना यह है कि बिहार में शुरू हुई ब्राह्मणों और ठाकुरों के इस जंग को नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव कैसे रोकते हैं, और उस लड़ाई की वजह से जो नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई कैसे कर पाते हैं।
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