आत्मीयता
लोग क्या कहते हैं-इस आधार पर दु:खी होने की आदत डालेंगे तो सदैव दु:ख भोगना पड़ेगा।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
यह संभव नहीं कि सब लोग वैसे ही आचरण करें जैसा आप चाहते हैं। हम क्या करते हैं-इस आधार पर सुखी होने की आदत डालेंगे तो सदैव सुख ही सुख सामने पड़ेगा। अपने को मनमर्जी का बनाना अपने हाथ में है। इससे कौन रोक सकता है कि हम सबको अपना समझें, प्यार करें और उस प्यार एवं अपनेपन के कारण जो आनंद उपजे उसका उपयोग करें। अपने प्रेम भाव के कारण बहुत अंशों में दूसरों का व्यवहार नरम, मधुर, सुखकर हो जाता है।
कदाचित अपवाद उपस्थित हो, किसी ऐसे जड़ से पाला पड़े जो उलटा ही उलटा चलता हो तो उसकी गतिविधियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखिए। आप तो अपने कर्त्तव्य में प्रसन्न रहिए। संसार में अनेक दुष्टात्मा भरे पड़े हैं, उनके होने से आपको कुछ बड़ा भारी शोक-संताप नहीं होता। फिर क्या कारण है कि अमुक व्यक्ति के दोषों का दंड आप अपने को दें। दूसरों के बुरे विचार और कार्यों से अपने को प्रभावित मत होने दीजिए। सहनशीलता और समझौते की नीति से काम लीजिए। बदला या कर्ज चाहने की इच्छा छोड़कर विशुद्ध प्रेम का, आत्मभाव का प्रसार कीजिए। इससे आप अपने लिए एक स्वर्ग की रचना बड़ी आसानी से कर सकेंगे। आध्यात्मिक साधना में अहंभाव का विस्तार करना-यह तत्त्व प्रधान रूप में विद्यमान है।
आत्मोन्नति ही तो है कि अपनेपन के दायरे को छोटे से बड़ा बनाया जाए। जिनका अपनापन केवल अपने शरीर तक ही है वे कीट-पतंग की नीची श्रेणी के हैं, जो अपनी संतान तक आत्मभाव को बढ़ाते हैं वे पशु-पक्षी से कुछ ऊंचे हैं, जिनका अहंकार अपनी संस्था, राष्ट्र तक है। वे मनुष्य हैं, जो मानव जाति को अपनेपन से ओत-प्रोत देखते हैं, वे देवता हैं, जिनकी आत्मीयता चर-अचर तक विस्तृत है, वे जीवन-मुक्त परम सिद्ध हैं। जीव अणु है, छोटा है, सीमित है।
ईश्वर महान है, विभु है, व्यापक है। जीव ईश्वर में तद्रूप होने के लिए आगे बढ़ता है तो वह भी महानता, विभुता, व्यापकता के गुणों में समन्वित होने लगता है। जिन पर भूत चढ़ता है, उनके वचन-आचरण भूत जैसे हो जाते हैं, ईश्वरीय कृपा की किरण जिन महात्माओं पर पड़ती है, उनकी स्पष्ट पहचान ‘आत्मभाव का विस्तार’ है।
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