थकान
खुली धूप, ताजी हवा और अंग संचालन के लिए आवश्यक शारीरिक परिश्रम का अभाव साधन-संपन्न लोगों की थकान का मुख्य कारण है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
साधन-संपन्न लोग ही तात्कालिक सुविधा देखते हैं, और दूरगामी क्षति को भूल जाते हैं। फलत: आरामतलबी का रवैया भारी पड़ता है और थकान तथा उससे उत्पन्न अनेक विग्रहों का सामना करना पड़ता है। म्यूनिख (जर्मनी) की वावेरियन एकेडमी ऑफ लेबर एंड सोशल येडीशन संस्था के शोधों का निष्कर्ष है कि कठोर शारीरिक श्रम करने वाले मजदूरों की अपेक्षा दफ्तरों की बाबूगीरी स्वास्थ्य की दृष्टि से खतरनाक है।
स्वास्थ्य परीक्षण-तुलनात्मक अध्ययन आंकड़ों के निष्कर्ष और शरीर रचना तथ्यों को सामने रखकर शोध कार्य करने वाली इस संस्था के प्रमुख अधिकारी एरिफ हाफमैन का कथन है कि कुर्सयिों पर बैठे रहकर दिन गुजारना अन्य दृष्टियों से उपयोगी हो सकता है पर स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्वथा हानिकारक है। इससे मांसपेशियों के ऊतकों एवं रक्त वाहिनियों को मिली हुई स्थिति में रहना पड़ता है, वे समुचित श्रम के अभाव में शिथिल होती चली जाती हैं। फलत: उनमें थकान और दर्द की शिकायत उत्पन्न होती है।
रक्त के नये उभार में, उठती उम्र में यह हानि उतनी अधिक प्रतीत नहीं होती पर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे आंतरिक थकान के लक्षण बाहर प्रकट होने लगते हैं, और उन्हें कई बुरी बीमारियों के रूप में देखा जा सकता है। कमर का दर्द (लेवैगो), कूल्हे का दर्द (साइटिका) गर्दन मुड़ने में कंधा उचकाने में दर्द, शिरा स्फीति (वेरी कजोवेंस), बवासीर, स्थायी कब्ज, आंतों के जख्म, दमा जैसी बीमारियों के मूल में मांसपेशियों और रक्त वाहिनियों की निर्बलता ही होती है, जो अंग संचालन, खुली धूप और स्वच्छ हवा के अभाव में पैदा होती है।
इन उभारों को पूर्व रूप की थकान समझा जा सकता है। बिजली की तेज रोशनी में लगातार रहना, आंखों पर ही नहीं आंतरिक अवयवों पर भी परोक्ष रूप से बुरा प्रभाव डालता है। आंखें एक सीमा तक ही प्रकाश की मात्रा को ग्रहण करने के हिसाब से बनी हैं। प्रकृति ने रात्रि के अंधकार को आंखों की सुविधा के हिसाब से ही बनाया है। प्रात:-सायं के समय भी मंद प्रकाश रहता है। कहा जा सकता है कि आंखें प्रकाश की अति प्रबल शक्ति को भी शरीर में भेजने की अनुचित मात्रा को रोकने का काम करती हैं।
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