भावावेश

Last Updated 19 Nov 2021 02:46:03 AM IST

सभी विभिन्न आवेगों में निश्चित ही बहुत समानता है: वह है भावावेशित हो जाना।


आचार्य रजनीश ओशो

यह चाहे प्रेम हो, चाहे घृणा, चाहे क्रोध हो; कुछ भी हो सकता है। यह बहुत अधिक हो जाए तो उससे भावावेशित हो जाने की अनुभूति देता है। यहां तक कि दर्द और तकलीफ भी वही अनुभव पैदा करते हैं। यह विशेष रूप से एक भावावेशित व्यक्तित्व का सूचक है। जब यह क्रोध है, तब यह पूरी तरह क्रोध है। जब प्रेम है, पूरी तरह प्रेम है। पूर्ण रूप से, अंधे की तरह उस भाव में डूब जाता है। परिणामस्वरूप जो भी कृत्य होता है, वह गलत होता है।

यहां तक कि भावावेशित प्रेम भी हो तो जो कृत्य इससे निकलता है वह ठीक नहीं होगा। इसके मूल की तरफ जाएं, जब भी तुम किसी भाव से आवेशित होते हो, सभी तर्क खो देते हो, सभी ग्राह्यता, अपना हृदय खो देते हो। यह लगभग काले बादल की तरह होता है जिसमें तुम खो जाते हो। तब तुम जो भी करते हो वह गलत होने वाला है। प्रेम तुम्हारे भावावेश का हिस्सा नहीं होना चाहिए। साधारणतया लोग यही सोचते और अनुभव करते हैं, परंतु जो कुछ भी भावावेशित है, बहुत अस्थिर है। हवा के झोंके की तरह आता है और गुजर जाता है, और पीछे तुम्हें रिक्त, बिखरा हुआ, दुख और पीड़ा में छोड़ जाता है।

जिन्होंने आदमी के पूरे अस्तित्व को, उसके मन को, हृदय को, उसके बीइंग को जाना है, उनके अनुसार, प्रेम तुम्हारे अंतरतम की अभिव्यक्ति होनी चाहिए न कि भावावेश। भाव बहुत नाजुक, बहुत परिवर्तनशील होता है। एक क्षण को लगता है कि यही सब कुछ है, दूसरे क्षण तुम पूरे रिक्त होते हो। इसलिए पहली चीज जो करनी है वह यह कि प्रेम को आवेशित भावावेश की भीड़ से बाहर कर लेना है। प्रेम भावावेश नहीं है। इसके विपरीत गहरी अंतर्दृष्टि, स्पष्टता, संवेदनशीलता और जागरूकता है।

परंतु इस तरह का प्रेम शायद ही कभी उपलब्ध होता है, क्योंकि कभी-कभी ही कोई व्यक्ति अपनी निजता तक पहुंचता है। कुछ लोग हैं जो अपनी कार को प्रेम करते हैं-वह प्रेम मन का प्रेम है। तुम अपनी पत्नी को, पति को, बच्चे को प्रेम करते हो-वह प्रेम हृदय का प्रेम है। परंतु उसे जीवंत बने रहने कि लिए बदलाव की आवश्यकता है। तुम उसे उसकी परिवर्तनशीलता की अनुमति नहीं देते, इसलिए वह जड़वत हो जाती है।



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