संतोष
एक बार की बात है। एक गांव में एक महान संत रहते थे। स्वयं का आश्रम बनाना चाहते थे जिसके लिए कई लोगों से मुलाकात करते थे।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
और उन्हें एक जगह से दूसरी जगह यात्रा के लिए जाना पड़ता था। इसी यात्रा के दौरान एक दिन उनकी मुलाकात एक साधारण सी कन्या विदुषी से हुई। विदुषी ने उनका बड़े हर्ष से स्वागत किया और संत से कुछ समय कुटिया में रुक कर विश्राम करने की याचना की। संत ने उसका आग्रह स्वीकार किया। विदुषी ने संत को स्वादिष्ट भोज कराया। उनके विश्राम के लिए खटिया पर दरी बिछा दी। खुद धरती पर टाट बिछा कर सो गई।
विदुषी को सोते ही नींद आ गई। संत को खटिया पर भी नींद नहीं आ रही थी। उन्हें मोटे नरम गद्दे की आदत थी जो उन्हें दान में मिला था। वो रात भर चैन की नींद नहीं सो सके। सोच रहे थे कि वो कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो सकती हैं। दूसरे दिन सवेरा होते ही संत ने विदुषी से पूछा कि तुम कैसे इस कठोर जमीन पर इतने चैन से सो रही थी। तब विदुषी ने बड़ी ही सरलता से उत्तर दिया, हे गुरु देव! मेरे लिए मेरी ये छोटी सी कुटिया महल के समान ही भव्य है। इसमें मेरे श्रम की महक हैं। अगर मुझे एक समय भी भोजन मिलता हैं तो मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं।
जब दिन भर के कार्यों के बाद धरा पर सोती हूं तो मां की गोद का आत्मीय अहसास होता हैं। दिन भर के अपने सत्कर्मो का विचार करते हुए चैन की नींद सो जाती हूं। मुझे अहसास भी नहीं होता कि मैं इस कठोर धरा पर हूं। यह सब सुनकर संत जाने लगे। तब विदुषी ने पूछा, हे गुरुवर! क्या मैं भी आपके साथ आश्रम के लिए धन एकत्र करने चल सकती हूं? तब संत ने विनम्रता से उत्तर दिया, बालिका! तुमने जो मुझे आज ज्ञान दिया है, उससे मुझे पता चला कि मन का सच्चा सुख कहां है।
अब मुझे किसी आश्रम की इच्छा नहीं रह गई। यह कहकर संत अपने गांव लौट गए और एकत्र किया धन गरीबों में बांट दिया और स्वयं एक कुटिया बनाकर रहने लगे। जिसके मन में संतोष नहीं है, सब्र नहीं है, वह लाखों करोड़ों की दौलत होते हुए भी खुश नहीं रह सकता। बड़े-बड़े महलों, बंगलों में मखमल के गद्दों पर भी उसे चैन की नींद नहीं आ सकती। उसे हमेशा और ज्यादा पाने का मोह लगा रहता है। इसके विपरीत जो अपने पास जितना है उसी में संतुष्ट है, जिसे और ज्यादा पाने का मोह नहीं है, वह कम संसाधनों में भी खुशी से रह सकता है।
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