लोकहित
भव्य भवन थोड़े से या झोंपड़े बहुत से, इन दोनों में से एक का चयन जन कल्याण की दृष्टि से करना है, तो बहुलता वाली बात को प्रधानता देनी पड़ेगी।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
राम के पीछे वानर, कृष्ण के पीछे ग्वाल-बाल, शिव के भूत-पलीत वाले चयन का उद्देश्य समझने पर तथ्य स्पष्ट होता है कि बहुजन सुखाय बहुजन हिताय की नीति ही वरिष्ठ है। विद्वानों को निष्णात बनाने में भी हर्ज नहीं, पर निरक्षरों को साक्षर बनाना ही लोक हित की दृष्टि से प्रमुखता पाने योग्य ठहरता है।
विशालकाय गायत्री शक्ति पीठों और बड़े प्रज्ञा पीठों को अब क्षेत्रीय गतिविधियों का मध्य केंद्र बना कर चला जाएगा। वे अपने-अपने मंडलों के केंद्रीय कार्यालय रहेंगे। हर गांव-मुहल्ले में सृजन और सुधार व्यवस्था के लिए बिना इमारत के स्वाध्याय मंडल, प्रज्ञा संस्थान ही प्रमुख भूमिका संपन्न करेंगे।
विशालकाय समारोहों की व्यवस्था दूर-दूर से जन समुदाय एकत्रित करके उत्साह उत्पन्न करने की दृष्टि से आवश्यक है, पर जब जन-जन से संपर्क साधने और घर-घर का द्वार खटखटाने की आवश्यकता पड़े तो निजी परिवार जैसे छोटे विचार परिवार ही काम देते हैं।
इस प्रयोजन की पूर्ति स्वाध्याय मंडल ही कर सकते हैं। एक अध्यापक प्राय: तीस छात्रों तक को पढ़ाने में समर्थ हो पाता है। स्वाध्याय मंडली को एक अध्यापक माना गया है और संस्थापक को चार अन्य भागीदारों की सहायता से एक छोटे विचार परिवार का गठन करके युगांतरीय चेतना से उस समुदाय को अवगत अनुप्राणित करने के लिए कहा गया है। यही है स्वाध्याय मंडलों का संगठन।
प्रज्ञा परिजनों में से जिनमें भी प्रतिभा, कर्मठता, साहसिकता हो उन्हें इन्हीं स्वाध्याय संगठनों में तत्काल नियोजित करना चाहिए। इसमें उनकी सृजन शक्ति को प्रकट प्रखर होने का अवसर मिलेगा। बड़े संगठनों में आए दिन खींचतान और दोषारोपण के झंझट चलते हैं।
निजी सम्पर्क और निजी प्रयत्न से एक प्रकार का निजी विचार परिवार बना लेने में किसी प्रकार के विग्रह की आशंका नहीं है। हर दंपति अपना नया परिवार बनाता और नया वंश चलाता है। प्रज्ञा परिजनों में से जो भी मानसिक बौनेपन से बढ़कर प्रौढ़ता परिपक्वता की स्थिति तक पहुंच चुके हैं, उन्हें अपने निजी पुरु षार्थ का विशिष्ट परिचय देना चाहिए।
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