कर्म
कर्म जीवन को देखने का काव्यात्मक ढंग है। एक तो राह है जीवन को देखने की गणित की, और एक राह है जीवन को देखने की काव्य की।
![]() आचार्या रजनीश ओशो |
गणित की यात्रा विज्ञान पर पहुंचा देती है। और अगर काव्य की यात्रा पर कोई चलता ही चला जाए, तो परम काव्य परमात्मा पर पहुंच जाता है, लेकिन काव्य की भाषा को समझना थोड़ा दुरूह है, क्योंकि तुम्हारे जीवन की सारी भाषा गणित की भाषा है। तो गणित की भाषा से तो तुम परिचित हो, काव्य की भाषा से परिचित नहीं हो।
दो भूलों की संभावना है। पहली तो भूल यह है कि तुम काव्य की भाषा को केवल कविता समझ लो, एक कल्पना मात्र! तब तुमने पहली भूल की। और दूसरी भूल यह है कि तुम कविता की भाषा को गणित की तरह सच समझ लो, तथ्य समझ लो, तब भी भूल हो गई। दोनों से जो बच सके, वह समझ पाएगा कि आषाढ़ पूर्णिमा का गुरु -पूर्णिमा होने का क्या कारण है। काव्य की भाषा तथ्यों के संबंध में नहीं है, रहस्यों के संबंध में है। जब कोई प्रेमी कहता है अपनी प्रेयसी से कि तेरा चेहरा चांद जैसा, तो कोई ऐसा अर्थ नहीं है कि चेहरा चांद जैसा है। फिर भी वक्तव्य व्यर्थ भी नहीं है। चांद जैसा तो चेहरा हो कैसे सकता है? आइंस्टीन का बड़ा प्रसिद्ध मजाक है।
उसने जिस युवती से विवाह किया था, वह थोड़ी कविता करती थी, फ्रा आइंस्टीन। आइंस्टीन ने उससे कहा, मैं समझ ही नहीं पाता। क्योंकि आइंस्टीन तो गणित, साकार गणित, गणित का अवतार। शायद पृथ्वी पर वैसा कोई गणितज्ञ कभी हुआ ही नहीं, और होगा भी, यह भी संदिग्ध है। तो उसने कहा, यह मैं समझ ही नहीं पाता। ये कविताएं बिल्कुल बेबूझ मालूम पड़ती हैं। लोग कहते हैं, प्रेयसी का चेहरा चांद जैसा! चांद न तो सुंदर है। चांद पर जाकर चांद-यात्रियों को पता चल गया कि आइंस्टीन सही है, सब कवि गलत हैं।
खाई-खड्ड हैं; न कोई हरियाली है, न कोई लहलहाती झीलें हैं, न फूल खिलते हैं, न पक्षी गीत गाते हैं; मरु स्थल है। और इतना मुर्दा मरु स्थल है कि जहां कोई, कुछ भी जीवित नहीं है। सौंदर्य की बात इस मरघट से क्या हो सकती है? और स्त्री के चेहरे को चांद का चेहरा कहना! आइंस्टीन ने कहा, अनुपात भी नहीं बैठता, कितना बड़ा चांद, कितना छोटा-सा चेहरा! बात तो ठीक ही है। अगर काव्य की भाषा को तुमने तथ्य की भाषा समझा, तो यही स्थिति बनेगी। फिर दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने काव्य की भाषा को तथ्य की भाषा सिद्ध करने की चेष्टा की है।
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