नैतिक क्रांति

Last Updated 24 Dec 2020 12:08:17 AM IST

आज की सुविधा, संपन्नता की प्राचीनकाल से तुलना की जाए और मनुष्य के सुख-संतोष को भी दृष्टिगत रखा जाए तो पिछले जमाने की असुविधा भरी परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति अधिक सुखी और संतुष्ट जान पड़ेंगे।


श्रीराम शर्मा आचार्य

इन पंक्तियों में भौतिक प्रगति तथा साधन-सुविधाओं की अभिवृद्धि को व्यर्थ नहीं बताया जा रहा है, न उनकी निन्दा की जा रही है। कहने का आशय इतना भर है कि परिस्थितियां कितनी भी अच्छी और अनुकूल क्यों न हों, यदि मनुष्य के आंतरिक स्तर में कोई भी सुधार नहीं हुआ है तो सुख-शांति किसी भी उपाय से प्राप्त नहीं की जा सकती है।  सर्वतोमुखी पतन और पराभव के इस संकट का निराकरण करने के लिए एक ही उपाय कारगर हो सकता है।

वह है व्यक्ति और समाज का भावनात्मक परिष्कार। भावना स्तर में अवांछनीयताओं के घुस पड़ने से ही तमाम समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, इन समस्याओं का यदि समाधान करना है तो सुधार की प्रक्रिया भी वहीं से प्रारम्भ करनी पड़ेगी, जहां से ये विभीषिकाएं उत्पन्न हुई हैं। अमुक-अमुक समाधान-सामयिक उपचार तो हो सकता है, पर चिरस्थाई समाधान के लिए आधार को ही ठीक करना पड़ता है।  अधर्म का आचरण करने वाले असंयमी, पापी, स्वार्थी, कपटी, धूर्त और दुराचारी लोग शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य एवं धन-संपत्ति, यश-वैभव आदि सबकुछ खो बैठते हैं। उन्हें बाह्य जगत में घृणा और तिरस्कार तथा अंतरात्मा में धिक्कार ही उपलब्ध होते हैं। ऐसे लोग भले ही उपभोग के कुछ साधन इकट्ठे कर लें, पर उनका रोम-रोम अशांत रहता है। यदि वे कुछ पा भी लेते हैं तो उपभोग के पश्चात उनके लिए विषतुल्य-दुखदायक ही सिद्ध होता है।

आत्मशान्ति पाने, सुसंयमित जीवन व्यतीत करने वाले मनुष्य को धर्ममय जीवनक्रम अपनाने के लिए तत्पर होना पड़ता है। नैतिकता, मानवता एवं कर्तव्यपरायणता को ही अपने जीवन में समाविष्ट करना होता है। इस प्रवृत्ति का व्यापक प्रसार करने के लिए किए गए प्रयत्नों को नैतिक क्रांति की संज्ञा दी जाती है। बुद्ध धर्म के प्रथम मंत्र ‘धम्मं शरणं गच्छामि‘ में इसी नैतिक क्रान्ति की चिनगारी निहित है, इस मंत्र को लोकव्यापी बनाने के लिए जो प्रयत्न बौद्ध धर्मावलम्बियों ने किया था, उसे विशुद्ध नैतिक क्रान्ति ही कहा जएगा।



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