सभ्यता और संस्कृति
सभ्यता और संस्कृति इस युग के दो बहु-प्रचलित विषय हैं। आस्थाओं और मान्यताओं को संस्कृति और तदनुरूप व्यवहार, आचरण को सभ्यता की संज्ञा दी जाती है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य, |
संस्कृति का अर्थ है-मनुष्य का भीतरी विकास। आदान-प्रदान एक तथ्य है, जिसके सहारे मानवीय प्रगति के चरण आगे बढ़ते-बढ़ते वर्तमान स्थिति तक पहुंचे हैं। एक वर्ग की उपलब्धियों से दूसरे क्षेत्र के लोग परिचित हुए हैं। परस्पर आदान-प्रदान चले हैं। ठीक यही बात धर्म और संस्कृति के संबंध में भी है। एक ने अपने संपर्क क्षेत्र को प्रभावित किया है। एक लहर ने दूसरी को आगे धकेला है। मिल-जुलकर ही मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ा है।
इस समन्वय से धर्म और संस्कृति भी अछूते नहीं रहे हैं। सभ्यताओं का यह समन्वय एवं आदान-प्रदान उचित भी है, और आवश्यक भी। कट्टरता के इस कटघरे में मानवीय विवेक को कैद रखे रहना असंभव है। विवेक दृष्टि जाग्रत होते ही इन कटघरों की दीवारें टूटती हैं, और जो रु चिकर या उपयोगी लगता है, उसका बिना किसी प्रयास या दबाव के आदान-प्रदान चल पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए कट्टरपंथी प्रयास हाथ-पैर पीटते रहे हैं पर कठिन ही रहा है। हवा उन्मुक्त आकाश में बहती है। सर्दी गर्मी का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होता है। संप्रदायों और सभ्यताओं में भी यह आदान-प्रदान अपने ढंग से चुपके-चुपके चलता रहा है। धर्म और संस्कृति दोनों ही सार्वभौम हैं, उन्हें सर्वजनीन कहा जा सकता है। भौतिक प्रवृत्तियां लगभग एक सी हैं। एकता व्यापक है और शात। पृथकता सामयिक है और क्षणिक।
हम सब एक ही पिता के पुत्र हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए हैं। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं, और बादलों के अनुदान से एक ही तरह अपना गुजारा करते हैं, फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बंधे रह सकते हैं? औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान-प्रदान का द्वार जितना खोलकर रखा जाए, उतना ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियां बंद रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं, और न स्वच्छ हवा और खुली धूप से मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।
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