कर्मफल
कर्मफल अटल सत्य है। क्रिया की प्रतिक्रिया सुनिश्चित है। जो किया गया है उसका भुगतान आज नहीं तो कल अवश्य ही करना होता है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
हां, ऐसा हो सकता है कि कुछ कर्म देर से फल देते हैं और कुछ तत्काल, पर देते अवश्य हैं। शराब, गांजा का सेवन करते ही नशा चढ़ता है। विषपान करते ही मृत्यु हो जाती है। आग को छूते ही उंगलियां जल जाती हैं। बर्फ को छूते ही हाथ ठंडा हो जाता है। कांटे चूभोते ही दर्द होता है। बुरी नजर डालते ही लोगों का कोपभाजन बनना पड़ता है। ये सब तत्काल फल देने वाले हैं। इसी तरह देर वाले भी हैं, जो चिरस्थायी हैं, उनके बढ़ने और प्रौढ़ होने में देर लगती है। जौ बोने के दस दिन में ही उनके अंकुर छ: इंच ऊंचे उग आते हैं किन्तु नारियल की गुठली बो देने पर वह एक वर्ष में अंकुर फोड़ती है और वर्षो में धीरे-धीरे बढ़ती है। बरगद का वृक्ष भी देर लगाता है जबकि अरंड का पेड़ कुछ ही महीनों में छाया और फल देने लगता है।
हाथी जैसे दीर्घजीवी पशु, गिद्ध जैसे पक्षी, ह्वेल जैसी जलचर अपना बचपन बहुत दिन में पूरा करते हैं। मक्खी, मच्छरों का बचपन और यौवन बहुत जल्दी आता है पर वे मरते भी उतनी ही जल्दी हैं। शारीरिक और मानसिक परिश्रम का, आहार-विहार का, व्यवहार-शिष्टाचार का प्रतिफल हाथोंहाथ मिलता रहता है। उनकी उपलब्धि सामयिक होती है, चिरस्थायी नहीं। स्थायित्व नैतिक कृत्यों में होता है, उनके साथ भाव-संवेदनाएं और आस्थाएं जुड़ी होती हैं। जड़ें अन्तरंग की गहराई में धंसी रहती हैं, इसलिए उनके भले-बुरे प्रतिफल भी देर में मिलते हैं और लंबी अवधि तक ठहरते हैं।
इन कर्मो के फलित होने में प्राय: जन्म-जन्मान्तरों जितना समय लग जाता है। भूतकालीन कृत्यों के आधार पर वर्तमान बनता है और वर्तमान का जैसा भी स्वरूप है, उसी के अनुरूप भविष्य बनता चला जाता है। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या और स्वास्थ्य, संपदा जवानी में बलिष्ठता एवं संपन्नता बनकर सामने आती है। यौवन का सदुपयोग-दुरु पयोग बुढ़ापे के जल्दी या देर से आने, देर तक जीने या जल्द मरने के रूप में परिणत होता है। वृद्धावस्था की मन:स्थिति संस्कार बनकर मरणोत्तर जीवन के साथ जाती और पुनर्जन्म के रूप में अपनी परिणति प्रकट करती है।
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