तप साधना
संसार को, मानव जाति को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए अनेक प्रयत्न हो रहे हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
उद्योग- धंधे, कल-कारखाने, रेल, तार, सड़क, बांध, स्कूल, अस्पतालों आदि का बहुत कुछ निर्माण कार्य चल रहा है। इससे गरीबी और बीमारी, अशिक्षा और असभ्यता का बहुत कुछ समाधान होने की आशा की जाती है; पर मानव अन्त:करणों में प्रेम और आत्मीयता का, स्नेह और सौजन्य का आस्तिकता और धार्मिंकता का, सेवा और संयम का निर्झर प्रवाहित किए बिना, विश्व शान्ति की दिशा में कोई कार्य न हो सकेगा। जब तक सन्मार्ग की प्रेरणा देने वाले गांधी, दयानन्द, शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, नारद, व्यास जैसे आत्मबल सम्पन्न मार्गदर्शक न हों, तब तक लोक मानस को ऊंचा उठाने के प्रयत्न सफल न होंगे।
लोक मानस को ऊंचा उठाए बिना पवित्र आदर्शवादी भावनाएं उत्पन्न किये बिना लोक की गतिविधियां ईर्ष्या-द्वेष, शोषण, अपहरण आलस्य, प्रमाद, व्यभिचार, पाप से रहित न होंगी, तब तक क्लेश और कलह से, रोग और दारिद्र से कदापि छुटकारा न मिलेगा। लोक मानस को पवित्र, सात्विक एवं मानवता के अनुरूप, नैतिकता से परिपूर्ण बनाने के लिए जिन सूक्ष्म आध्यात्मिक तरंगों को प्रवाहित किया जाना आवश्यक है, वे उच्चकोटि की आत्माओं द्वारा विशेष तप साधन से ही उत्पन्न होगी। मानवता की, धर्म और संस्कृति की यही सबसे बड़ी सेवा है। आज इन प्रयत्नों की तुरन्त आवश्यकता अनुभव की जाती है, क्योंकि जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं असुरता का पलड़ा अधिक भारी होता जाता है, देरी करने में अति और अनिष्ट की अधिक सम्भावना हो सकती है। समय की इसी पुकार ने हमें वर्तमान कदम उठाने को बाध्य किया।
यों जबसे यज्ञोपवीत संस्कार संपन्न हुआ, 6 घण्टे की नियमित गायत्री उपासना का क्रम चलता रहा है; पर बड़े उद्देश्यों के लिए जिस सघन साधना और प्रचंड तपोबल की आवश्यकता होती है, उसके लिए यह आवश्यक हो गया कि 1 वर्ष ऋषियों की तपोभूमि हिमालय में रहा और प्रयोजनीय तप सफल किया जाय। इस तप साधना का कोई वैयक्तिक उद्देश्य नहीं। स्वर्ग और मुक्ति की न कभी कामना रही और न रहेगी। अनेक बार जल लेकर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का संकल्प लिया है, फिर पलायनवादी कल्पनाएं क्यों करें।
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