एकाग्रता

Last Updated 25 Jun 2020 04:59:41 AM IST

एकाग्रता एक उपयोगी सत्प्रवृत्ति है। मन की अनियन्त्रित कल्पनाएं, अनावश्यक उड़ानें उस उपयोगी विचार शक्ति का अपव्यय करती हैं, जिसे यदि लक्ष्य विशेष पर केंद्रित किया गया होता, तो गहराई में उतरने और महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त करने का अवसर मिलता।


श्रीराम शर्मा आचार्य

यह चित्त की चंचलता ही है, जो मन: संस्थान की दिव्य क्षमता को ऐसे ही निर्थक गंवाती और नष्ट-भ्रष्ट करती रहती है। संसार के वे महामानव जिन्होंने किसी विषय में पारंगत प्रवीणता प्राप्त की है या महत्त्वपूर्ण सफलताएं उपलब्ध की हैं, उन सबने विचारों पर नियंत्रण करने, उन्हें अनावश्यक चिंतन से हटाकर उपयोगी दिशा में चलाने की क्षमता प्राप्त की है। इसके बिना चंचलता की वानरी वृत्ति से ग्रसित व्यक्ति न किसी प्रसंग पर गहराई के साथ सोच सकता है और न किसी कार्यक्रम पर देर तक स्थिर रह सकता है।

शिल्प, कला, साहित्य, शिक्षा, विज्ञान, व्यवस्था आदि महत्त्वपूर्ण सभी प्रयोजनों की सफलता में एकाग्रता की शक्ति ही प्रधान भूमिका निभाती है। चंचलता को तो असफलता की सगी बहिन माना जाता है। बाल चपलता का मनोरंजक उपहास उड़ाया जाता है। वयस्क होने पर भी यदि कोई चंचल ही बना रहे-विचारों की दिशा धारा बनाने और चिंतन पर नियंत्रण स्थापित करने में सफल न हो सके, तो समझना चाहिए कि आयु बढ़ जाने पर भी उसका मानसिक स्तर बालकों जैसा ही बना हुआ है। ऐसे लोगों का भविष्य उत्साहवर्धक नहीं हो सकता। आत्मिक प्रगति के लिए तो एकाग्रता की और भी अधिक उपयोगिता है।

इसलिए मेडीटेशन के नाम पर उसका अभ्यास विविध प्रयोगों द्वारा कराया जाता है। इस अभ्यास के लिए कोलाहलरहित ऐसे स्थान की आवश्यकता समझी जाती है, जहां विक्षेपकारी आवागमन या कोलाहल न होता हो। एकान्त का तात्पर्य जनशून्य स्थान नहीं, वरन् विक्षेपरहित वातावरण है। सामूहिकता हर क्षेत्र में उपयोगी मानी गई है। उपासना भी सामूहिक हो, तो उसमें हानि नहीं, लाभ ही है। मस्जिदों में नमाज, गिरजाघरों में प्रेयर, मन्दिरों में आरती सामूहिक रूप से ही करने का रिवाज है। इसमें न तो एकांत की कमी अखरती है और न एकाग्रता में कोई बाधा पड़ती है।



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