अंतर्दोषों का प्रतिफल

Last Updated 30 Jan 2020 01:03:12 AM IST

नैतिक आदर्शों का पालन शरीर के प्रतिबंधों पर नहीं मन की उच्चस्थिति पर निर्भर है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के षड्रिपु जो मन में छिपे बैठे रहते हैं समय-समय पर हिंसा, झूठ, पाखंड, स्वार्थ, बेईमानी, रिश्वतखोरी, दहेज, कन्या विक्रय, वर विक्रय, मांसाहार जुआ, चोरी आदि सामाजिक बुराइयों के रूप में फूट पड़ते हैं। नाना प्रकार के दुष्कर्म यद्यपि अलग-अलग प्रकार के दीख पड़ते हैं पर उनका मूल एक ही है ‘मन की मलीनता’। जिस प्रकार पेट खराब होने से नाना प्रकार के शारीरिक रोग उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार मन मलीन होने पर हमारे वैयक्तिक और आंतरिक जीवन में नाना प्रकार के कुकर्म बन पड़ते हैं।

जिस प्रकार रोगों के कारण शरीर की पीड़ा उठानी पड़ती है, उसी प्रकार मन की मलीनता से हमारा सारा बौद्धिक संस्थान-विचार क्षेत्र औंधा हो जाता है और कार्यशैली ऐसी ओछी बन पड़ती है कि पग-पग पर असफलता, चिंता, त्रास, शोक, विक्षोभ के अवसर उपस्थित होने लगते हैं। अव्यवस्थित मनोभूमि को लेकर इस संसार में न तो कोई महान बना है और न किसी ने अपने जीवन को सफल बनाया है।

उसके लिए क्लेश और कलह, शोक और संताप दैन्य और दारिद्र ही सुनिश्चित हैं, न्यूनाधिक मात्रा में वे ही उसे मिलने हैं, वे ही मिलते भी रहते हैं। यह स्मरण रखने योग्य बात है, यह गांठ बांध लेने योग्य तथ्य है कि मनुष्य के जीवन में एकमात्र विभूति उसका मन है। इस मन को यदि संभाला और साधा न जाएगा, सुधारा और सुसंस्कृत न किया जाएगा तो वह नीचे बहने वाले जल की तरह स्वभावत: पतनोन्मुख होगा।

पुरुषार्थ की ओर जिनके कदम बढ़े हैं उनके लिए लौकिक सफलताओं और समृद्धियों का द्वार प्रशस्त होता है और उन्हीं ने आत्मिक लक्ष प्राप्त किया है। मन पर चढ़े हुए मल आवरण जब हट जाते हैं तो अपनी आत्मा में ही परमात्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होने लगते हैं। मन की मलीनता के रहते प्रत्येक दुख और अशुभ मनुष्य के आगे-पीछे ही घूमता रहेगा। देवत्व तो मानसिक स्वस्थता का ही दूसरा नाम है। जिसने अपना अन्त:करण स्वच्छ कर लिया उसने इसी देह में देवत्व का लाभ उठाया है और इसी धरती पर स्वर्ग का आनन्द लिया है। ‘स्वच्छ मन’ जीवन की एक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।



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