जो हो वही रहो

Last Updated 29 Oct 2019 06:32:01 AM IST

तुम जहां हो, वहीं से यात्रा शुरू करनी पड़ेगी। अब तुम बैठे मूलाधार में और सहस्रर की कल्पना करोगे, तो सब झूठ हो जाएगा।


आचार्य रजनीश ओशो

फिर इसमें दुखी होने का भी कारण नहीं, क्योंकि जो जहां है, वहीं से यात्रा शुरू हो सकती है। इसमें चिंतित भी मत हो जाना कि अरे, दूसरे मुझसे आगे हैं और मैं पीछे हूं! दूसरों से तुलना में भी मत पड़ना! नहीं तो और दुखी हो जाओगे। सदा अपनी स्थिति को समझो। और अपनी स्थिति के विपरीत स्थिति को पाने की आकांक्षा मत करो। अपनी स्थिति से राजी हो जाओ।

तुमसे मैं कहना चाहता हूं। तुम अपनी नीरसता से राजी हो जाओ। तुम इससे बाहर निकलने की चेष्टा ही छोड़ो। तुम इसमें आसन जमाकर बैठ जाओ। तुम कहो-मैं नीरस हूं। तो मेरे भीतर फूल नहीं खिलेंगे, नहीं खिलेंगे, तो मेरे भीतर मरु स्थल होगा; मरु द्यान नहीं होगा, नहीं होगा। मरु थल का भी अपना सौंदर्य है। उसका अपना सन्नाटा है। मरु थल की भी फैली अनंत सीमाएं हैं। अपूर्व सौंदर्य को अपने में छिपाए है। मरु थल होने में कुछ बुराई नहीं। परमात्मा ने तुम्हारे भीतर अगर स्वयं को मरुथल होना चाहा है, बनाना चाहा है, तुम उसे स्वीकार कर लो।

तुम्हें मेरी बात कठोर लगेगी, क्योंकि तुम चाहते हो कि जल्दी से गदगद हो जाओ। तुम चाहते हो कि कोई कुंजी दे दो, कोई सूत्र हाथ पकड़ा दो कि मैं भी रसपूर्ण हो जाऊं। लेकिन हो तुम विरस। तुम्हारी विरसता से रस की आकांक्षा पैदा होती है। आकांक्षा से द्वंद्व पैदा होता है। द्वंद्व से तुम और विरस हो जाओगे। तो मैं तुम्हें कुंजी दे रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं-तुम विरस हो, तो तुम विरस में डूब जाओ। तुम यही हो जाओ। तुम कहो-परमात्मा ने मुझे मरु थल बनाया तो मैं अहोभागी कि मुझे मरु थल की तरह चुना। तुम इसी में राजी हो जाओ। तुम भूलो गीत-गान। तुम भूलो गदगद होना। तुम छोड़ो ये सब बातें। तुम बिलकुल शुष्क ही रहो। तुम जरा चेष्टा मत करो, नहीं तो पाखंड होगा। ऊपर-ऊपर मुस्कुराओगे और भीतर-भीतर मरुथल होगा।

ऊपर से फूल चिपका लोगे, भीतर से कांटे होंगे। तुम ऊपर से चिपकाना ही भूल जाओ। तुम तो जो भीतर हो, वही बाहर भी हो जाओ। और तुमसे मैं कहता हूं- तब क्रांति घटेगी। अगर तुम अपने मरु थल होने से संतुष्ट हो जाओ, तो अचानक तुम पाओगे-मरु थल कहीं खो गया। अचानक तुम आंख खोलोगे और पाओगे कि हजार-हजार फूल खिले हैं मरु थल तो खो गया, मरुद्यान हो गया! संतोष मरु द्यान है। असंतोष मरुथल है। और तुम जब तक अपने मरु थल से असंतुष्ट रहोगे, मरुथल पैदा होता रहेगा। हर असंतोष नए मरु थल बनाता है।



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