आरक्षण

Last Updated 16 Aug 2019 03:46:49 AM IST

भीमराव आम्बेडकर के जीवन से जुड़ी एक मार्मिंक घटना मुझे याद आ रही है। जब वे नौ वर्ष के थे, तो उनके पिता गोरेगांव में काम करते थे।


जग्गी वासुदेव

उस समय उन्होंने अपने पुत्र को गर्मी की छुट्टियों में अपने साथ रहने के लिए बुलाया। आम्बेडकर अपने बड़े भाई और एक संबंधी के साथ सतारा से गाड़ी में चढ़े।

लड़कों ने नई अंग्रेजी स्टाइल की कमीजों के साथ रेशमी किनारे वाली धोती और नई चमकदार टोपियां पहनी थीं। यह उनकी पहली रेल यात्रा थी और वे बहुत रोमांचित थे। जब वे अपनी मंजिल पर पहुंचे तो उन्हें कोई लेने नहीं आया था। उनके पिता को उनके पहुंचने की तारीख की चिट्ठी नहीं मिली था। स्टेशन मास्टर ने उन्हें शायद उनके कपड़ों की वजह से ऊंची जाति का समझ कर वेटिंग रूम में जगह दिलवा दी। लेकिन बाद में उनकी जाति का पता चलने पर, उन्हें उस जगह से निकाल दिया गया।

उन्होंने पिता जी के पास जाने के लिए बैलगाड़ी किराए पर लेनी चाही पर कोई उन्हें साथ ले जाने को तैयार नहीं था। आखिर में एक बैलगाड़ी वाले ने हामी भरी पर उसने गाड़ी में साथ बैठने से मना कर दिया और गाड़ी के साथ पैदल चलने लगा। उसका मानना था कि दलितों के साथ बैठने से वह अपवित्र हो जाएगा। यह एक लंबा सफर था और किसी ने उन्हें रास्ते में पानी तक नहीं दिया। वे अगली सुबह गोरेगांव पहुंचे। सफर के अनुभवों ने आंबेडकर को पूरी तरह से हिला कर रख दिया। यह घटना 1901 की है। आज एक सदी से ज्यादा समय बीतने के बाद भी देहाती इलाकों में यही दशा है।

भले ही उतनी कट्टरता न हो पर आज भी यह सोच कायम है कि किसी दूसरे इंसान के छूने से कोई मैला हो सकता है। हमारे समाज की इस दयनीय दशा के बावजूद हम अक्सर सुनते हैं कि हमें आरक्षण को हटा देना चाहिए। मैं समझ सकता हूं कि ये सब कहां से आ रहा है। भारत जैसे देश में, आप जो भी नियम बनाएं, खासकर ऐसे नियम जो कुछ विशेष सुविधा देते हैं, सदा उनका दुरु पयोग होगा। यह हकीकत है। परंतु दलितों के लिए आरक्षण के मामले में, हमें ‘उपयोग’ और ‘दुरु पयोग’ को तौलना होगा। यह समुदाय, हजारों सालों से भेदभाव सहन करता आ रहा है। अगर उन्हें हम सबके बराबर लाने के लिए कुछ विशेष अधिकार नहीं देंगे तो यह अन्याय होगा।



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