ईश्वर की समीपता
ईश्वर हमारे सबसे अधिक समीप है। संसार का कोई पदार्थ या व्यक्ति जितना समीप हो सकता है, उसकी अपेक्षा ईश्वर की निकटता और भी अधिक है।
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
वह हमारी सांस के साथ प्रवेश करता है और समस्त अंग-अवयवों में प्राणवायु के रूप में जीवन का अनुदान प्रतिक्षण प्रदान करता है। यदि इसमें क्षणभर का भी व्यवधान उत्पन्न हो जाय तो मरण निश्चित है। संभावित सोलह हजार नाड़ियों के साथ वही कृष्ण रमण करता है। मांसपेशियों के आकुंचन-प्रकुंचन में गुदगुदी उसी के द्वारा उत्पन्न की जाती है। अन्त:करण में उसी का गीता प्रवचन निरन्तर चलता है। ज्ञान-विज्ञान की विशालकाय पाठशाला उसी ने हमारे मस्तिष्क में चला रखी है। जीवकोषों के भीतर चलने वाली गतिविधियों का सूक्ष्म उपकरणों से निरीक्षण किया जाए, तो पता लगेगा कि समस्त ब्रह्माण्ड के विशाल परिकर में जो हलचलें हो रही हैं, वे सभी बीज रूप से इन नन्हीं सी कोशिकाओं में गतिशील हैं। ‘जो ब्रह्माण्ड में, सो पिण्ड में’ वाली उक्ति अब किंवदंती नहीं रही। अब उसकी पुष्टि एक सुनिश्चित सच्चाई के रूप में हो चुकी है। मनुष्य का व्यक्तित्व वस्तुत: विराट् ब्रह्मा का एक संक्षिप्त संस्करण है। पर वह मनुष्य का शरीर धारण करके अवतार लेता रहता है, यह सत्य है। इसी प्रकार यह भी एक स्वत:सिद्ध सच्चाई है कि मनुष्य अपने चरम विकास की स्थिति में पहुंचकर परमेर बन सकता है। मानवी संरचना कुछ है ही ऐसी अद्भुत की उसमें ईश्वर की समग्र सत्ता की अनुभूति कर सकना सर्वथा सम्भव है।
इतना सब होते हुए भी हम ईश्वर से अरबों-खरबों मील दूर हैं। उसकी समीपता की अनुभूति के साथ-साथ जिस परम सन्तोष और परम आनन्द का अनुभव होना चाहिए, वह कभी हुआ ही नहीं। ईश्वर की समीपता को जीवन मुक्ति भी कहते हैं। उस स्थिति को सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सयुज्य, इन चार रूपों में वर्णन किया गया है। ईश्वर के लोक में रहना, उसके समीप रहना, उस जैसा रूप होना, उसमें समाविष्ट हो जाना, यह चारों ही अवस्थाएं उस स्थिति की ओर संकेत करती हैं, जिसमें मनुष्य की भीतरी चेतना और बाहरी क्रिया उतनी उत्कृष्ट बन जाती है जितनी कि ईश्वर की होती है। अपनी चेतना सत्ता को ईश्वरीय चेतना में घुला देने में किसे कितनी सफलता मिली, इसका परिचय उसके चिन्तन और कर्तृत्व का स्तर परख कर सहज ही प्राप्त किया जा सकता है।
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