स्वर्ग-नर्क

Last Updated 19 Jul 2019 04:42:20 AM IST

पूरी दुनिया में, मानव समाज पर नियंत्रण करने के लिये स्वर्ग और नर्क की धारणाएं फैलाई गई हैं।


जग्गी वासुदेव

जब वे समझ नहीं पा रहे थे कि लोगों पर व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से कैसे काबू पाया जाए तो उन्होंने यह तरकीब निकाली,‘अगर हम तुम्हें अभी सजा नहीं दे सकते, तो हम तुम्हें वहां पकड़ लेंगे। आपके अच्छे कामों के लिए अगर हम आपको यहां ईनाम नहीं दे सकते, तो हम आपको वहां ईनाम देंगे’।

लेकिन अगर सत्य अस्तित्व की वास्तविकता से थोड़ा सा भी अलग है तो वहां जाने का कोई मतलब नहीं है। जब हम कहते हैं,‘असतो मा सद्गमय’ तो इसका अर्थ है, ‘असत्य से सत्य की ओर यात्रा’। वास्तव में यह कोई यात्रा नहीं है। यात्रा शब्द से ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई दूरी पार करनी है पर असलियत में कोई दूरी पार नहीं करनी होती। ‘जानना‘ दूर नहीं है, क्योंकि आप को जो जानना है वो कहीं दूर पर्वत के शिखर पर नहीं है, वह आप के अंदर ही है।

पहली बात जिसे योग नकारता है, वह है-स्वर्ग और नर्क। जब तक स्वर्ग और नर्क की मान्यता है, तब तक भीतरी खुशहाली की तकनीकों और मुक्ति की ओर बढ़ने की प्रक्रिया का कोई मतलब नहीं है क्योंकि आखिरकार आप इन दो जगहों में से ही कहीं जाएंगे-या तो एक बुरी जगह या एक अच्छी जगह। अगर आपको किसी तरह से अच्छी जगह जाने का टिकट मिल जाता है, तो आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है कि आप कैसे जी रहे हैं। मानवता के इतनी बुरी तरह से जीने का एक मुख्य कारण ये है कि इसमें उन्हें धर्म की मदद मिली है।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करते हैं, अगर आप बस ये, ये और ये मानते हैं, तो आपका स्वर्ग जाने का टिकट पक्का है। आप के अंदर जो स्वर्ग और नर्क काम कर रहे हैं, अगर आप उनका नाश नहीं करते तो फिर आप किसी भी प्रकार से सत्य की ओर नहीं बढ़ सकते। फिलहाल, आप का शरीर और मन आप के अंदर ही स्वर्ग या नर्क बना सकते हैं। उनमें ये दोनों ही बनाने की योग्यता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कहां हैं, वे स्वर्ग या नर्क का निर्माण कर ही रहे हैं। आप के मन की अंतर करने की क्षमता का स्वभाव ऐसा है कि जब आप अपने अंदर नर्क का निर्माण करते हैं और फिर जब यह ज्यादा ही यातना देने लगता है तब आप इसे थोड़ा वापस खींच लेते हैं।



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