शासन
शासन सुरक्षा है। शासन जरूरी है। जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां कुछ नियम चाहिए चाहिए अन्यथा बड़ी अराजकता होगी। इसलिए शासन की जरूरत है।
![]() आचार्य रजनीश ओशो |
लेकिन बस एक सीमा तक शासन चाहता है समाज, व्यक्ति नहीं; समूह, व्यक्ति नहीं; क्योंकि व्यक्ति होने में ही खतरा है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता की मांग है। व्यक्तित्व की आखिरी गरिमा परिपूर्ण मुक्ति है; और शासन का अर्थ ही बंधन है।
दूसरी बात, जैसे ही शासन बढ़ता है वैसे-वैसे शासन के नीचे दबे लोग दुर्बल होते जाते हैं। शासन का पेट ही नहीं भर पाता; लोगों का पेट कैसे भरे? इसे हम चिकित्सा शास्त्र से आसानी से समझ सकते हैं। चिकित्सक कहते हैं कि मनुष्य की हड्डियों पर थोड़ी सी चर्बी चाहिए; वह चर्बी हड्डियों की रक्षा करती है।
हड्डियों के आसपास एक उष्मा, एक गरिमा बनाए रखती है। वह चर्बी जरूरत-गैर-जरूरत के समय, संकट के समय आत्मरक्षा का उपाय है। बहुत दिन भूखा रहना पड़े तो वह चर्बी तुम्हारा भोजन बन जाएगी। हर आदमी करीब-करीब तीन महीने भूखा रह सकता है इतनी चर्बी उसके शरीर में है। इतना होना जरूरी है, अन्यथा आदमी मुश्किल में होगा। लेकिन फिर ऐसी घटना घटती है कि कुछ लोग रुग्ण हो जाते हैं, और चर्बी बढ़ती चली जाती है। फिर चर्बी शरीर को बचाती नहीं, मारती है फिर हड्डियों की सुरक्षा नहीं रहती, हड्डियों को तोड़ने वाला बोझ हो जाती है।
फिर हृदय को उतनी चर्बी को खींचना मुश्किल हो जाता है, तो हृदय पर आक्रमण होने शुरू हो जाते हैं। फिर चर्बी इतनी बढ़ जाती है कि मस्तिष्क तक ऊर्जा नहीं पहुंचती, तो भीतर मस्तिष्क जड़ होने लगता है। ऐसी घटना घट सकती है कि चर्बी इतनी हो जाए कि आदमी हिल-डुल न सके; उसकी गति समाप्त हो जाए; उसका जीवन मृत्यु जैसा हो जाए। शासन थोड़ा सा जरूरी है। अगर शासन बढ़ता जाए तो वह ऐसा ही है जैसे किसी आदमी की चर्बी बढ़ती जाए। चर्बी एक मात्रा में बचाती है; एक मात्रा के पार जाने पर मारती है।
शासन सुरक्षा है। शासन जरूरी है। जहां एक से ज्यादा लोग हैं, वहां कुछ नियम चाहिए, व्यवस्था चाहिए; अन्यथा बड़ी अराजकता होगी, जीना तो मुश्किल ही हो जाएगा। इसलिए शासन की जरूरत है। लेकिन बस एक सीमा तक। वहीं तक शासन की जरूरत है जहां तक एक व्यक्ति को दूसरे की जीवन-स्वतंत्रता में बाधा डालने से रोकने की जरूरत है। बस! कोई व्यक्ति किसी के जीवन में बाधा न डाले, इतने दूर तक शासन का काम है।
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