मन दर्पण

Last Updated 06 May 2019 05:43:21 AM IST

मन तो बस दर्पण है। यदि वह स्वच्छ है शुद्ध है तो इसमें असीम प्रतिद्वंद्वित हो सकता है। वह प्रतिबिंब असीम न होगा पर झलक जरूर होगी उसकी लेकिन यही झलक बाद में द्वार बन जाती है।




रीराम शर्मा आचार्य

प्रतिबिंब पीछे छूट जाता है ओेर अनन्त में प्रवेश मिल जाता है। बाहरी तौर पर यह बात थोड़ी अटपटी लग सकती है। भला कैसे इतने छोटे से मन से कोई सम्पर्क बन सकता है शात के साथ अनन्त के साथ। इस सच्चाई को कुछ यों समझा जा सकता है जैसे कि खिड़की की छोटी सी चौखट से असीम आकाश का दिखना। भले ही खिड़की से सारा आकाश नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन जो दिखाई देता है वह अकाश ही है। कुछ इसी तरह स्वच्छ मन शुद्ध मन से परमात्मा की झलक मिलती है। दरअसल अपना मन भी गहरे में परमात्मा का ही हिस्सा है। मेरा तेरा के जटिल भाव ने इसे छोटा बना दिया है। परमात्मा के असीम व अनन्त स्वरूप के बारे में उपनिषदों में बहुत कुछ विरोधाभासी बातें कही गई है। इनमें से एक बात है कि अंश हमेशा पूर्ण के बराबर होता है क्योंकि अनन्त को बांटा नहीं जा सकता। ठीक वैसे ही जैसे कि आकाश का विभाजन सम्भव नहीं है। कहने वाले भले ही कहते हैं कि मेरे घर के ऊपर का आकाश मेरा और तुम्हारे घर के ऊपर का आकाश तुम्हारा। मतलब उसने बांट लिया आकाश को।

इस प्रकार के कथनों के बावजूद आकाश अविभाजित अनन्त विस्तार है। इसका न कोई आरम्भ है और न कोई अन्त। न यह मेरा है न तेरा न तो भारतीय है न ही चीनी या पाकिस्तानी। बस कुछ ऐसी ही बात मन के साथ है। मन के साथ जुड़ी मेरी तुम्हारी मनोदशा भ्रान्ति है। इस भ्रान्ति के कारण ही मन सीमित हो गया है। सीमित होने की धारणा एक भ्रम है इसे ही तो मिटाना है। इसे हर हाल में नेस्तनाबूद करना है। अध्यात्म की समूची साधना इसलिए है। इसके पहले चरण में मन को स्वच्छ शुद्ध करना है। दूसरे चरण में मनोदशा के ढांचे को गिरा देना है। इसके गिरते ही बस परमात्मा की पूर्णता बचती है। तर्क भले ही कहता रहे कोई अंश पूर्ण के बराबर कैसे हो सकता है? लेकिन ईशावस्य उपनिषद के रिशि का अनुभव कहता है कि पूर्ण से पूर्ण निकालने के बाद भी पूर्ण ही बचता है और पूर्ण में पूर्ण डालने पर भी पूर्ण बनता है। स्वच्छ व शुद्ध मन से जो अनुभव किया जाता है वह परमात्मा की पूर्णता का अनुभव ही है।



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