परमार्थ

Last Updated 02 May 2019 07:26:21 AM IST

परमार्थ परायण जीवन जीना है तो उनके नाम पर कुछ भी करने लगना उचित नहीं।


परमार्थ के नाम पर अपनी शक्ति ऐसे कार्यों में लगानी चाहिए, जिनमें उसकी सर्वाधिक सार्थकता हो। स्वयं अपने अंदर से लेकर बाहर समाज में सत्प्रवृत्तियां पैदा करना, बढ़ाना इस दृष्टि से सबसे अधिक उपयुक्त है। संसार में जितना भी कुछ सत्कार्य बन पड़ रहा है उस सबके मूल में सत्प्रवृत्तियां ही काम करती हैं। समय पाकर बीज जिस प्रकार अंकुरित होता और फलता-फूलता है उसी प्रकार सत्प्रवृत्तियां भी अगणित प्रकार के पुण्य परमाथरे के रूप में विकसित एवं परिलक्षित होती हैं। जिस शुष्क हृदय में सद्भावनाओं, सद्विचारों के लिए कोई स्थान न हो, उसके द्वारा जीवन में कोई श्रेष्ठ कार्य बन पड़े यह लगभग असंभव ही मानना चाहिए। जिन लोगों ने कोई सत्कर्म, आदर्श का अनुसरण किया है, उनमें से प्रत्येक को उससे पूर्व अपनी पाशविक वृत्तियों पर नियंत्रण कर सकने योग्य सद्विचारों का लाभ किसी न किसी प्रकार मिल चुका होता है। कुकर्मी और दुबरुद्धि मनुष्यों के इस घृणित उपस्थिति में पड़े रहने की जिम्मेदारी उनकी उस भूल पर है, जिसके कारण कि वे सद्विचारों की आवश्यकता और उपयोगिता को समझने से वंचित रहे, जीवन के इस सवरेपरि लाभ की उपेक्षा करते रहे, उसे व्यर्थ मानकर उससे बचते और कतराते रहे।

मूलत: मनुष्य एक प्रकार का काला कुरू लोहा मात्र है। सद्विचारों का पारस छूकर ही वह सोना बनता है। इस संसार में अनेकों परमार्थ और उपकार के कार्य हैं। ये सब आवरण मात्र हैं उनकी आत्मा में, सद्भावनायें सन्निहित हैं। अनेकों संस्थाएं आज परमार्थ का आडंबर ओढ़कर सिंह की खाल ओढ़कर फिरने वाले श्रृंगार का उपहासास्पद उदाहरण प्रस्तुत कर रही हैं। उनसे लाभ किसी का कुछ नहीं होता और परमार्थ को भी लोग संदेह की दृष्टि से देखने लगने लगते हैं। बुराइयां आज संसार में इसलिए बढ़ और फल-फूल रही हैं कि उनका अपने आचरण द्वारा प्रचार करने वाले पक्के प्रचारक, पूरी तरह मन, कर्म, वचन से बुराई करने और फैलाने वाले लोग बहुसंख्या में मौजूद है। सत्प्रवृत्तियों को मनुष्य के हृदय में उतार देने से बढ़कर और कोई महत्त्वपूर्ण कार्य इस संसार में नहीं हो सकता।



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