शरीर

Last Updated 07 Feb 2019 05:41:16 AM IST

आस्तिकता और कर्तव्य परायणता की सद्वृत्ति का प्रभाव पहले अपनी सबसे समीपवर्ती स्वजन पर पड़ना चाहिए।


श्रीराम शर्मा आचार्य

हमारा सबसे निकटवर्ती सम्बन्धी हमारा शरीर है। उसके साथ सद्व्यवहार करना, उसे स्वस्थ और सुरक्षित रखना अत्यावश्यक है। शरीर को नर कहकर उसकी उपेक्षा करना अथवा उसे ही सजाने-संवारने में सारी शक्ति खर्च कर देना, अकल्याणकारी है। हमारा सदा सहायक सेवक शरीर है। वह चौबीसों घंटे सोते-जागते हमारे लिए काम करता रहता है।

वह जिस भी स्थिति में हो, अपनी सामथ्र्य भर आज्ञा पालन के लिए तत्पर रहता है। सुविधा साधनों के उपार्जन में उसी का पुरुषार्थ काम देता है। इतना ही नहीं, उसकी पांच ज्ञानेन्द्रियां न केवल ज्ञान वृद्धि का दायित्व उठाती हैं, वरन समय-समय पर अपने-अपने ढंग से अनेक प्रकार के रसास्वादन भी कराती रहती हैं।

नेत्र, कान, नाक, जिह्वा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान तंतु अपने-अपने ढंग के रसास्वादन कराते रहते हैं। इन विशेषताओं के कारण ही आत्मा उसकी सेवा-साधना पर मुग्ध हो जाती है और अपने सुख ही नहीं अस्तित्व तक को भूल कर उसी में पूरी तरह रम जाती है। उसका सुख-दु:ख मान अपमान आदि निज की भाव-संवेदना में सम्मिलित कर लेती है। यह घनिष्ठता इतनी अधिक सघन हो जाती है कि व्यक्ति, आत्मा की सत्ता, आवश्यकता तक को भूल जाता है और शरीर को अपना ही आपा मानने लगता है। उसका अंत हो जाने पर तो जीवन की इतिश्री मान ली जाती है।

ऐसे वफादार सेवक को समर्थ, निरोग एवं दीर्घजीवी बनाए रखना प्रत्येक विचारशील का कर्तव्य है। चाहते तो सभी ऐसा ही हैं, पर जो रहन-सहन, आहार-विहार अपनाते हैं, वह विधा ऐसी उल्टी पड़ जाती है कि उसके कारण अपने प्रिय पात्र को अपार हानि उठानी पड़ती है, इतना अत्याचार सहना पड़ता है कि उसका कचूमर तक निकल जाता है और दुर्बलता से ग्रसित होकर व्यक्ति असमय में ही दम तोड़ देता है।

यह सब उस अज्ञान के कारण होता है, जो होश संभालने से पूर्व ही अभिभावकों के अनाड़ीपन के कारण वह अपने ऊपर लाद लेता है। स्वस्थ-समर्थ रहना कठिन नहीं है। प्रकृति के संकेतों का अनुसरण करने भर से यह प्रयोजन सिद्ध हो सकता है। प्रकृति के सभी जीवधारी यही करते और दुर्घटना जैसी आकस्मिक परिस्थितियों को छोड़कर निरोग रहते और समयानुसार अपनी मौत मरते हैं।



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