विश्लेषण : हवा-हवाई बजट
एक जमाना था जब केंद्र सरकार का सालाना बजट एक गंभीर मामला हुआ करता था।
विश्लेषण : हवा-हवाई बजट |
बेशक, तब भी बजट में उसे बनाने वाली सरकार का वर्गीय झुकाव झांक रहा होता था, लेकिन यह वर्गीय झुकाव ठीक-ठीक किस तरह से विभिन्न बजट प्रस्तावों में अभिव्यक्त होता था, इसे बजट आंकड़ों की छानबीन कर के साबित करना होता था और इसमें मेहनत लगती थी। यूं तो हमेशा से बजट में चीजों को रंग-चुनकर पेश किए जाने का भी एक तत्व रहता था, लेकिन यह हाशिए तक ही सीमित रहता था। बजट का मुख्य भाग, गंभीर छानबीन की मांग करता था, लेकिन मोदी सरकार के राज में अब यह सब बदल गया है। अब तो सबसे महत्त्वपूर्ण बजट प्रस्तावों को शायद ही खास गंभीरता से लिया जा सकता है।
जरा इस बजट के सबसे नजर खेंचू प्रस्ताव पर ही नजर डाल लें। यह प्रस्ताव 2 हेक्टेयर तक की जमीन की मिल्कियत वाले सभी किसान परिवारों के लिए 6,000 रुपये साल की सहायता देने का है, मगर जिस रोज कामचलाऊ वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने बजट में यह घोषणा की, छुट्टी पर चल रहे असली वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कह दिया कि वित्त वर्ष 2019-20 से ही केंद्र सरकार, राज्य सरकारों से कह सकती है कि इस धन हस्तांतरण में 40 फीसद योगदान दें, जबकि 60 फीसद हिस्सा ही केंद्र देगा। यह स्पष्ट है कि अगर केंद्र सरकार ने वाकई इस हस्तांतरण के लिए फंड की व्यवस्था की होती, तो जेटली ने इसे तथ्यत: एक केंद्र-प्रायोजित योजना में तब्दील नहीं कर दिया होता। जेटली की टिप्पणी से यह साबित होता है कि बजट में इस योजना के लिए जो साधन दिखाए गए हैं, वह वास्तव में बिल्कुल ही हवाई हैं और बजट के आंकड़े, पूरी तरह से दिखावटी हैं। आंकड़ों का यह खोखलापन, 2018-19 के संशोधित अनुमानों के मामले में भी सच है।
स्वतंत्र शोधकर्ताओं ने यह साबित कर दिया है कि 2018-19 के लिए केंद्रीय जीएसटी का राजस्व संग्रह, जिसके संशोधित अनुमान में 5.04 लाख करोड़ रुपये ही यानी 2018-19 के बजट अनुमान से पूरे 1 लाख करोड़ रुपये कम रहने का अनुमान था, वास्तव में इस आंकड़े तक भी पहुंचता नजर नहीं आता है। अप्रैल-जनवरी के दौरान यह राजस्व संग्रह 3.77 लाख करोड़ रुपये रहने का ही अनुमान है और 37,635 करोड़ रुपये के औसत मासिक कर संग्रह के साथ, पूरे वित्त वर्ष के लिए यह कर संग्रह 4.52 लाख करोड़ का आंकड़ा पार नहीं कर सकता है। यह संशोधित अनुमान से भी 52,000 करोड़ रुपये घटकर होगा। इसी प्रकार, कापरेरेट आयकर और सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सा पूंजी के विनिवेश से अंतत: हासिल होने वाला राजस्व, 2018-19 के संशोधित अनुमानों से काफी घटकर ही रहने जा रहा है। बहरहाल, चूंकि नवउदारवादी व्यवस्था में विीकृत वित्तीय पूंजी को यह दिखाना बहुत ही जरूरी होता है कि राजकोषीय घाटे को मजबूती से बांधकर रखा जा रहा है, वर्ना यह वित्तीय पूंजी बदहवास हो जाएगी और देश से उड़नछू ही हो जाएगी। इसलिए, सरकार हर तरह की हिसाब-किताब की तिकड़मों का सहारा लेने में लगी रही है।
बेशक, राजकोषीय घाटा अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं है, जबकि विीकृत वित्तीय पूंजी और नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा उसे ऐसा बनाकर पेश किया जाता है। फिर भी, यहां दो नुक्ते दर्ज करने वाले हैं। पहला, कर राजस्व का गंभीर रूप से घटकर आना चिंता का कारण होना चाहिए और भविष्य के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। दूसरे, बजट में पेश किए गए आंकड़ों की इसके बाद शायद ही कोई साख रह जाएगी। इसी तरह का अतिरंजनापूर्ण आकलन, 2019-20 की अनुमानित कर प्राप्तियों की भी पहचान बना हुआ है। कापरेरेट कर प्राप्तियां, जो 2018-19 के संशोधित अनुमान में 6.71 करोड़ रुपये लगाई गई हैं और जिनका इस आंकड़े तक भी पहुंचना बहुत ही मुश्किल है, 2019-20 के बजट अनुमान में भारी बढ़ोतरी के साथ, 7.6 करोड़ रुपये आंकी गई हैं। इसी प्रकार, केंद्रीय जीएसटी की प्राप्तियां, जिनके जैसा कि हम पहले ही देख आए हैं, 2018-19 में 4.52 लाख करोड़ रुपये के करीब तक ही पहुंचने का अनुमान है, 2019-20 के बजट अनुमान में बढ़कर, 6.10 लाख करोड़ रुपये पर पहुंचती दिखाई गई हैं। चूंकि बजट के प्राप्तियों के खाते में काफी कुछ हवाई है, स्वाभाविक रूप से यही बात, खचरे के खाते मामले में भी सच है।
बेशक, 2019-20 का बजट बड़ी बेशर्मी से, गरीबों की चिंता ही नहीं होने को दिखाता है। मनरेगा के लिए आवंटन, 2018-19 के मुकाबले, 1000 करोड़ रुपये घटा दिया गया है। इस तथ्य को देखते हुए कि इसका 2018-19 का आवंटन तो इस वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही के आखिर तक आते-आते खत्म ही हो चुका था और ऐसा इस जानी-मानी परिघटना के बावजूद देखने को मिल रहा था कि मनरेगा के अंतर्गत रोजगार की मांग का एक अच्छा-खासा हिस्सा तो, रजिस्टर ही नहीं हो पाता है। इस सबके बावजूद, सरकार का इस बार के बजट में 2018-19 से भी 1,000 करोड़ रुपये कम का आवंटन करना, इस योजना के प्रति और इसलिए, इसके लाभार्थी करोड़ों गरीबों के प्रति, सरासर उदासीनता को ही दिखाता है। इसी तरह, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आवंटन में शुद्ध कटौतियां की गई हैं। इतना ही नहीं, खेतिहर परिवारों के लिए नकद सहायता योजना के दायरे से भी, सबसे गरीबों को तो बाहर ही रखा गया है। इस योजना के दायरे में भूमिधर काश्तकार ही आते हैं (जिनके पास ‘आवासीय प्लाट’ के अलावा खेती की ‘जमीन’ हो), भूमिहीन मजदूर तो साफ तौर पर इसके दायरे से बाहर ही रहेंगे। और चूंकि जिन भूमिधरों के लिए यह आय सहायता दी जानी है, उनमें अक्सर बंटाईदारों के नाम नहीं होंगे क्योंकि बंटाईदारी की जोतों के बारे में जानकारी ही नहीं होती है और इस तरह बंटाईदार भी इसके दायरे से बाहर हो जाएंगे। इस तरह कृषि क्षेत्र के भी सबसे गरीबों यानी खेत मजदूरों और बंटाईदारों को इस नकद आय सहायता योजना के दायरे से पूरी तरह से बाहर ही कर दिया गया है।
बेशक, चुनाव से पहले सरकारें घूस देती ही हैं। किंतु 2019-20 के बजट को सामान्य रूप से ऐसा होने से अलगाने वाली एक बात तो यही है कि एक ऐसी सरकार ने, जिसके कार्यकाल के सिर्फ दो महीने नया वित्त वर्ष शुरू होने के बाद बचेंगे, एक पूर्ण बजट पेश किया है, जो कि अंसवैधानिक है। लेकिन, इसके ऊपर से इस बजट के सारे आंकड़े ही हवा-हवाई हैं। आबादी के अपेक्षाकृत छोटे मध्यम संस्तर के लिए कुछ रियायतें दिए जाने को छोड़ दिया जाए तो, बजट के ये आंकड़े सिर्फ चुनाव प्रचार में बढ़त दिलाने के लिए रखे गए हैं।
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