गुरु परब : सामाजिक-आध्यात्मिक कर्त्तव्य का बोध

Last Updated 25 Nov 2018 04:24:02 AM IST

इस सप्ताह गुरु परब खास रहा जब गुरु नानक देव जी के आगमन की साढ़े पांच सौंवी जयंती का आयोजन शुरू हुआ।


गुरु परब : सामाजिक-आध्यात्मिक कर्त्तव्य का बोध

उनकी उपस्थिति उस दौर में हुई थी, जब मुगल शासन के प्रभुत्व के दौर में भारतीय समाज जातियों और वगरे में बंटा हुआ था। अज्ञानता, गरीबी और अंधविश्वास हावी थे। पूरे माहौल में निराशा व्याप्त थी। नामदेव, चैतन्य, सूरदास, कबीर जैसे संत-महात्मा उभर रहे थे। ऐसे दौर में प्रथम सिख गुरु श्री गुरु  नानक देव जी का प्रादुर्भाव हुआ जिन्होंने अज्ञान और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ जबर्दस्त सामाजिक जंग छेड़ी जिसके मूल में आध्यात्मिक बदलाव लाने की सोच थी।
गुरुनानक ने दैनिक जीवन में धर्म का पालन अपने दायित्वों के साथ कैसे किया जा सकता है, इसकी राह दिखाई। अड़तीस की उम्र होते-होते वे पूरी तरह से धर्म कार्य को समर्पित हो गए। पूरे भारत के तीथरे समेत अनेक क्षेत्रों का भ्रमण किया। उनके गाए पदों को एकत्र कर पांचवे सिख गुरु  श्री अर्जन ने संकलित किया। इस संकलन को ‘आदि ग्रंथ साहब’ का नाम दिया। इसे हरमंदर साहब, (आज का स्वर्ण मंदिर परिसर, अमृतसर) में स्थापित किया गया। सिख धर्म गुरु ओं की जो परंपरा शुरू हुई  वह दसवें गुरु  श्री गुरु  गोविंद सिंह तक चली जो संभवत: सबसे तेजस्वी, यशस्वी, निर्भीक, विद्वान और अनोखे योद्धा साबित हुए। मुगल शासन औरंगजेब  के राज्य-काल में बड़ा ही क्रूर था। उस दौरान गुरु  गोविंद सिंह जी के शौर्य, बलिदान और सर्जनात्मक ऊर्जा ने भारतीय इतिहास में नया अध्याय लिखा। ‘दसम ग्रंथ’ में उनकी काव्य रचनाएं संकलित हैं। गुरु  गोविंद सिंह ने अपने  बाद ग्रंथ साहब को ही जीवित गुरु  का दरजा दिया। भक्ति और शक्ति, दोनों का संतुलन करते हुए उन्होंने ‘खालसा’ की स्थापना की जो साधु-सैनिक की जुगलबंदी जैसी थी।

अपने समय के सभी धर्मो के श्रेष्ठ विचारों को साथ लेकर गुरु  नानक ने अपनी अनुभूतियों को सबसे साझा किया था। वे एकेरवादी थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि अच्छे कर्मो  और सेवा की भावना के साथ जीने से ही परमात्मा मिलते हैं। गृहस्थ जीवन जीते हुए सेवा और सत्संग करना तथा आपसी भाईचारे की भावना के साथ रहना, मनुष्य मात्र में ईश्वर का वास देखना और उस एक ईश्वर का निरंतर स्मरण करते रहना ऐसे विचार हैं, जो उनकी वाणी में बार-बार आते हैं। उनकी सोच बड़ी सीधी और सरल है। आखिर, जो हर जगह व्याप्त है वह हमारे शरीर में भी रहता है, और उसे पाया जा सकता है।
सिख विचार मानता है कि मनुष्य को अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए। गुरु  कहते हैं, ‘सत्य का पालन सबसे बड़ा गुण है, जो सभी पापों को धो देता है’। संतोष और आत्म नियंत्रण की भी बड़ी महत्ता गाई गई है। आदमी अक्सर इंद्रिय-सुख के पीछे भागता रहता है, और उनसे मिलने वाले सुख को हमेशा का बनाए रखना चाहता है। ऐसे में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार आदमी के सबसे बड़े दुश्मन बन जाते हैं। गुरु  कहते हैं कि सिख के लिए सरल साधना की जरूरत है, जिसमें मुख्य रूप से शामिल हैं-बुरे विचार से दूर रहना, अच्छे काम करना, सबकी सेवा करना और सज्जनों का साथ। साथ ही यह भी याद रखने की जरूरत होती है कि श्रम से उपार्जित धन संपदा सिर्फ अपने लिए ही नहीं होती, उसे जरूरतमंदों और गरीबों पर भी खर्च करना चाहिए। सादा जीवन और उच्च विचार का आदर्श गुरु  के जीवन का यथार्थ था। गुरु  ने भय और भ्रमों से दूर धैर्य के साथ बिना किसी भेदभाव के सबके साथ जुड़े रहना, पारिवारिक जीवन की पवित्रता बनाए रखने और शारीरिक परिश्रम की गरिमा पर बड़ा जोर दिया। एक सिख के लिए दुनिया में रहते हुए भी दुनियावी चीजों से खुद को अलग रखना चाहिए। उसके लिए गुरु बानी को स्मरण करते रहना, विवेक से काम लेना नित्य और अनित्य का भेद करना जरूरी होता है। फल की आशा में वह काम करके चुप बैठा नहीं रहता। सदैव सक्रिय रहता है। भिन्न मतों और विश्वासों के प्रति उदार दृष्टि रखता है। गुरु  की कृपा के योग्य बने रहने की कोशिश करता है। 
समाज में बदलाव के साथ सिखजनों में भी बदलाव आया है परंतु सिख विचार आज भी प्रासंगिक हैं। सिख परंपरा में नैतिकता को जीवन का मुख्य आधार माना गया है। विना उत्तम आचरण और सामाजिक नैतिकता के आत्मिक विकास संभव ही नहीं है। नैतिकता आध्यात्मिक जीवन के विकास का मुख्य उपाय है। कोई भी आदमी जन्मजात कमजोर या पापी नहीं होता। वह कुछ दैवी और प्रगतिशील प्रवृत्तियों के साथ जन्म लेता है पर कई बार पाप की प्रवृत्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि आदमी रास्ते से विचलित हो जाता है। सच का रास्ता न छोड़ना, पाप से परे रहना, ईमानदार रहना और दूसरों के प्रति न्याय करना प्रगति के लिए आवश्यक हैं। जीवन में उत्कृष्टता पाने के लिए त्याग जरूरी है। इसके विपरीत स्वार्थ और अहंकार हमें पतन की ओर ले जाते हैं। इसीलिए सेवा में प्यार और दान पर बड़ा जोर दिया गया।आज दुनिया में सिख धर्म की व्यापक उपस्थिति है। सहजता, गुरु  और गुरु बानी के प्रति आदर, दूसरों का आदर सत्कार, परिश्रम, ईमानदार जीवन और नि:स्वार्थ सेवा की भावना सामाजिक दृष्टि से आज भी बहुमूल्य हैं।

गिरीश्वर मिश्र


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