ठांव
भारत एक ऐसा देश है, जिसकी बुनियादी संस्कृति कृषि पर आधारित है. इस दुनिया में अगर कृषि का सबसे पुराना इतिहास देखा जाए तो शायद यहीं का मिलेगा.
![]() जग्गी वासुदेव |
इसने हमारे पशुओं, खासकर गाय व बैलों ने हमारे भोजन, हमारे खान-पान और हमारे जीवन को निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाई है. भले ही आज तमाम चीजें बदल गई हों, लेकिन आज भी इस मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के लिए पशुओं की जरूरत होती हैं. कभी भारत में देशी मवेशियों की एक सौ बीस नस्लें हुआ करती थीं.
लेकिन आज उनमें से सिर्फ सैंतीस नस्लें बची हैं, बाकी सभी लुप्त हो गई. ऐसे में अब यह बेहद जरूरी हो गया है कि बाकी नस्लें बची रहें. हमें लोगों को यह बताने की जरूरत है कि ये बची हुई नस्लें भी तेजी से खत्म हो रही हैं. अगर हमने अब भी उन्हें बचाने की कोशिश नहीं की तो वे ज्यादा समय तक नहीं बचेंगी. देशी गायों के दूध में ए-2 प्रोटीन होता है.
वैज्ञानिक तौर पर यह साबित हो चुका है कि देशी गायों का दूध, यहां तक कि उनका गोबर और मूत्र भी हमारी खेती के लिए बेहद लाभकारी है. उनके दूध की एक खास विशिष्टता होती है. उनमें ए-2 प्रोटीन होता है. दुनिया के दूसरे हिस्सों में पाई जाने वाली गायों के दूध में ए-1 प्रोटीन होता है, इससे दिल की बीमारियां होने का खतरा रहता है. सेहत के संदर्भ में अगर बात की जाए या कैंसर से बचाव के बारे में या फिर बच्चों के बेहतर विकास की बात हो अथवा जमीन की उर्वरता बढ़ाने का मामला हो, हर लिहाज से ये देशी नस्लें बेहद अहम होती हैं.
हमें इन चीजों के बारे में लोगों को जागरूक करना होगा, इनमें कस्बे और शहरों में रहने वाले लोग भी शामिल हैं. दुर्भाग्य से पिछले तीस से पैंतीस सालों के भीतर हमारे दिमाग में यह विचार घर कर चुका है कि विदेशी गायें ज्यादा बेहतर हैं. लेकिन आज विज्ञान में पर्याप्त ऐसे शोध हो चुके हैं, जो बताते हैं कि दूध की गुणवत्ता व काम करने के मामले में देशी गाय की नस्ल ज्यादा बेहतर और उपयोगी है.
मवेशियों की ये नस्लें हमेशा से हमारी संस्कृति, हमारे घरों व परिवारों का अभिन्न अंग रही है. समय के साथ बहुत से लोग शहरों में जाकर रहने लगे हैं, जहां इन मवेशियों को रख पाना संभव नहीं है. लेकिन साल में एक बार पड़ने वाला त्योहार मट्टू पोंगल हमारे लिए काम करने वाले पशुओं के प्रति हमारे सम्मान व प्रेम दर्शाने का एक प्रतीक है.
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