दान का मर्म
प्राचीन समय में जिन लोगों के कारण इस धरा पर सतयुगी परिस्थितियां बनी हुई थीं, उन्हें भूसुर अर्थात धरती का देवता कहा जाता था.
![]() श्रीराम शर्मा आचार्य |
ये भूसुर कहीं आसमान से नहीं टपकते थे , बल्कि इसके पीछे इनके जीवन जीने की श्रेष्ठ शैली ही थी. उनकी श्रेष्ठता का मूल आधार हुआ करता था-परमार्थ. वे अपने आपको समाज के लिए समपिर्त कर देते थे.
आखिर परमार्थ है क्या? हमारी मोटी बुद्धि दान को ही परमार्थ मानती है. साधारण जन तो दान का मतलब सीधे धन दान से ही लगाते हैं. लोग इस परिभाषा को इसलिए कबूल करते हैं कि इसमें एक का धन दूसरे के हाथ में, बदले में कुछ लिए बिना जाता हुआ सामने दिखाई देता है. इस प्रक्रिया में देखने वाला उसे उदार, दानवीर, पुण्यात्मा आदि मानता है.
यह शोहरत उसे हाथों-हाथ मिलती है , जिसे वह धन मिला है, वह तो प्रशंसा करता ही है. वह अन्य तमाम लोगों से चर्चा करके उसकी यश-पताका फहराता फिरता है. दान के रूप में दिया गया धन यदि कहीं कुपात्र के हाथ लगा, तो जाहिर है उसे वह र्दुव्यसनों में ही खर्च करेगा. जो धन पसीना बहाकर कमाया नहीं गया, उसका सदुपयोग होना संदिग्ध ही है.
इस प्रकार दान करने वाला व्यक्ति यदि अपना धन सत्पात्र के बजाय किसी कुपात्र को देता है, तो पुण्य के स्थान पर पाप ही बढ़ाता है. बिना श्रम किए पैसा पाकर दुर्गुणी व्यक्ति की प्रवृत्ति दुष्प्रवृत्तियों की ओर ज्यादा बढ़ जाती है. इस प्रकार अविवेकपूर्वक दिया गया, धूर्त और पाखंडियों को दिया हुआ दान, दानवीर के लिए भी अवगति का कारण बनता है.
आपत्ति में डूबे हुए लोगों की मदद करना तो अच्छी बात है, किंतु देने वालों को देखना यह भी चाहिए कि सस्ती वाहवाही के फेर में कहीं वे लेने वाले का स्वाभिमान और स्वावलंबन तो नहीं नष्ट कर रहे हैं. गांधीजी की बहन विधवा थीं. उसकी पुत्री भी विधवा हो गई. उसने गांधीजी से कुछ सहायता चाही. गांधीजी ने जवाब दिया कि तुम दोनों आश्रम में आ जाओ.
अशिक्षित होने पर भी तुम आटा पीस सकती हो. ऐसा करते हुए अपनी मेहनत की कमाई से पेट भरना. शास्त्रों में दान की महिमा खुले कंठ से गाई गई है. उसे उच्च कोटि का पुण्य-परमार्थ कहा गया है , किंतु भजन के नाम पर भी दान देने या लेने का कोई औचित्य नहीं. जो भजन व्यक्तिगत स्वार्थ, मुक्ति, सिद्धि आदि जैसे लाभों के लिए किया जाता है , उसमें परमार्थ नहीं होता.
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