मांसाहार

Last Updated 03 Jan 2018 05:47:25 AM IST

यौगिक तंत्र में शरीर और मन को अलग-अलग करके नहीं देखा जाता. आपका मस्तिष्क देह का ही हिस्सा है.


जग्गी वासुदेव

आम तौर पर जिसे मन कहते हैं, वो थोड़ी याददाश्त और बुद्धि है. बाकी शरीर और मस्तिष्क के बीच, किसके पास ज्यादा समझ और किसके पास ज्यादा स्मृति है? आप ध्यान से देखें तो शरीर के पास लाखों साल पुरानी याददाश्त है. इसे अच्छी तरह याद है कि आपके पूर्वज क्या थे. मन ऐसी याददाश्त का दावा नहीं कर सकता. यौगिक तंत्र में एक भौतिक शरीर होता है और एक मानिसक शरीर. प्रज्ञा या कहें बुद्धि और याददाश्त हमारे पूरे शरीर में फैली है. लोगों को लगता है कि मस्तिष्क ही सब कुछ है, क्योंकि यह विचार प्रक्रिया को संभालता है. मन-देह के इस अलगाव के कारण ही पश्चिम में लोग जीवन में कभी न कभी एंटीडिप्रेसेंट दवाएं लेते हैं. हम जैसा भोजन करते हैं, उसका मन पर गहरा असर होता है.

औसत अमेरिकी प्रति वर्ष दो सौ पाउंड मीट खा लेता है. आप इस मात्रा को पचास पाउंड तक ला सकें तो देखेंगे कि 75 प्रतिशत लोगों को एंटीडिप्रेसेंट दवाओं की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. आप रेगिस्तान या जंगल में हैं, तो मीट अच्छा भोजन हो सकता है, क्योंकि यह आपको देर तक जिंदा रख सकता है. आप कहीं खो जाएं तो मीट के सहारे समय बिता सकते हैं क्योंकि इसकी थोड़ी मात्रा में ज्यादा पोषण होता है.

आपके पास दूसरे विकल्प मौजूद हैं तो इसे रोजमर्रा के खाने में शामिल नहीं करना चाहिए. इसे आप कई तरह से देख सकते हैं. जानवरों को अपने मरने से कुछ पहले अपनी मौत का अहसास हो जाता है. जो भी जानवर किसी तरह का भाव रखता है, उसे पता लग जाएगा कि मरने जा रहा है. मान लें कि आपको पता चले कि आज आप सबको मार दिया जाएगा. कल्पना कीजिए कि आपके भीतर कैसा संघर्ष और रसायनिक प्रतिक्रिया पैदा होगी. जानवर भी, कुछ समय तक ही सही, इसी मनोदशा में रहता है.

आप उसे मारते हैं तो उसके मांस में वे नकारात्मक एसिड भी मिल जाते हैं. आप उसे खाते हैं, तो उससे आपके भीतर अनावश्यक मानसिक उतार-चढ़ाव पैदा होते हैं. आप एंटीडिप्रेसेंट दवा खाने वाले रोगियों को लगातार शाकाहारी भोजन पर रखें तो तीन माह में ही उन्हें दवाओं की जरूरत नहीं रहेगी. हमने ईशा योग केंद्र में आने वाले बहुत से लोगों के अंदर यह बदलाव देखा है.



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