मनोविज्ञान
मनोविज्ञान का एक अटल नियम है कि जो व्यक्ति अपने मन में जिस प्रकार की भावना संजोता रहता है वह अंतत: वैसा ही बन जाता है.
श्रीराम शर्मा आचार्य |
एक पहलवान और एक श्रमिक अपने-अपने तरह से शारीरिक श्रम ही किया करते हैं. पसीना बहाते और शरीर में थकान लाया करते हैं.
किंतु उनमें से एक हृष्ट-पुष्ट हो जाता है और दूसरा क्षीण. यह अंतर मात्र भावना रखता है कि वह जो शारीरिक श्रम कर रहा है, पसीना बहा रहा है, वह स्वास्थ्य लाभ के लिए कर रहा है और उसे दिन-दिन स्वास्थ्य लाभ हो रहा है. अपनी इसी भावना के अनुसार वह हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ हो जाता है.
श्रमिक की भावना श्रम करते समय ऐसी नहीं होती. वह सोचता है कि वह पेट के लिए औरों की मजदूरी कर रहा है. पैसे के लिए सेवा कर रहा है. जीविका की मजबूरी उससे परिश्रम करा रही है. अपनी इसी भावना के कारण वह पहलवान की तरह हृष्ट-पुष्ट नहीं हो पाता. विवशता एवं मजबूरी की भावना से उसका शरीर थक जाता है. उसकी शक्तियों का ह्रास होता जाता है. भावना के प्रभाव का यह सत्य कभी भी किसी क्षेत्र में देखा जा सकता है.
जो विद्यार्थी विद्या प्राप्त करके परीक्षा में सफल होने की भावना से अध्ययन किया करता है वह शीघ्र ही योग्यता प्राप्त कर लेता है. इसके विपरीत जो मजबूरी के साथ, अभिभावकों अथवा अध्यापकों के त्रास से पढ़ा करता है वह कोई लाभ नहीं उठा पाता उसका अधिकांश श्रम बेकार चला जाता है. स्वास्थ्य परीक्षा के अवसर पर दो व्यक्तियों को एक साथ यक्ष्मा का रोगी घोषित किया गया.
यह घोषणा दोनों के लिए समान चिंता का विषय थी. डॉक्टर का घोषित कर देना उन्हें यक्ष्मा हो गई है और शीघ्र ही उनके जीवन के अंत हो जाने की संभावना है, एक भयंकर आपत्ति ही है. मगर उन दोनों रोगी व्यक्तियों में से एक की भावना बड़ी दृढ़ थी. उसने डॉक्टर की घोषणा को सत्य स्वीकार करते हुए मृत्यु की संभावना को स्वीकार नहीं किया.
जीवन की अपेक्षा यदि मृत्यु प्रबल होती तो संसार को श्मशान होना चाहिए था. यह जीवन की प्रबलता का ही प्रमाण है कि संसार में इतनी चहल-पहल दिखाई देती है यदि मनुष्य के हृदय से मृत्यु का भाव सर्वथा तिरोहित हो जाये-जीवन के प्रति अविश्वास का अत्यन्ताभाव हो जाये-तो निश्चय ही वह अमर हो सकता है. जिनके हृदय में जीवन के प्रति पूर्ण, दृढ़ विश्वास रहता है, वह आज भी दीर्घजीवी होते हैं.
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