निराशा
माना कि आपका लक्ष्य सफलता पाना था और आपने कड़ी मेहनत की, मगर नतीजा विपरीत हो गया.
![]() जग्गी वासुदेव |
इसे लेकर किसलिए परेशान होना? तकलीफ किसलिए? कभी उत्साह के साथ बढ़ रही चींटियों की कतार को देखिए. उनमें से एक चींटी की राह पर यों ही उंगली रखकर रास्ता रोककर देखिए. वह रु केगी नहीं.
उंगली के चारों ओर घूमते हुए ढूंढ़ेगी कि रास्ता कहां है? उसके रास्ते पर चाहे जितने रोड़े अटकाएं वह किसी न किसी तरह अपनी यात्रा जारी रखेगी. मर कर गिर जाने तक वह अपना उत्साह नहीं खोती. पतली-सी घास को जमीन से उखाड़कर उसकी जड़ों को गौर से देखिए. कितने उत्साह के साथ जमीन के अंदर गहराई में जड़ों को फैलाकर वह धरती में टिकी होती है.
आपकी छत के ऊपर जरा-सी मिट्टी और थोड़ी नमी मिल जाए तो कोई घास खुद को वहां खड़ा करने की कोशिश करेगी. दो पत्ते पैदा करके सूर्य की ऊर्जा पाने की कोशिश करेगी. यह प्राणशक्ति ऊबना नहीं जानती. मनुष्य के संकीर्ण मन में ही गुस्सा, झुंझलाहट और नाउम्मीदी पैदा होती है. खुद को ‘पस्त’ होने की इजाजत देने वाला प्राणी इंसान ही है.
आपकी इच्छा के मुताबिक किसी ने व्यवहार नहीं किया. आपकी उम्मीद के अनुसार कोई काम नहीं हुआ. सरल शब्दों में कहें तो आपको जो हासिल हुआ है, उसे स्वीकार करने में असमर्थ होकर आप मन ही मन नफरत करते हैं, विरोध करते हैं. मुझसे किसी ने पूछा,‘हार को न झेल पाने की वजह से मन में निराशा और खीझ आने पर ही तो कामयाबी पाने की तड़प और आक्रोश पैदा होते हैं?’ हार से गुस्सा आएगा, निराशा आएगी और ये आपको उठाकर विजय के द्वार पर पहुंचा देगी, यह हास्यास्पद विचार है.
तड़प के बल से भले ही आप जीत हासिल कर लें, लेकिन वह नाममात्र की जीत होगी. उससे आपकी कोई भलाई नहीं होगी. पस्त होने के बाद आप चाहते हैं कि अगला आदमी आपके मन को समझे, दूसरे लोग आपके साथ बैठकर रोएं. कैसा पागलपन है ये? ऐसी उम्मीद करना कहां का न्याय है कि दुनिया आपका मन रखने के लिए अपने साथ ठगी करे? निराशा आत्मविश्वास को ध्वस्त कर देती है.
हथियार लेकर बाहर से हमला करने वालों से तत्काल आफत आ सकती है. उसी समय सही रणनीति बनाकर उनसे निपटना भी आसान है. लेकिन मन की निराशा जो है, अंदर बैठी हुई वह आपको चीर-कुतरकर बरबाद करने वाले विषैले हथियार के समान है.
Tweet![]() |