नवरात्र : शक्ति उपासना का पर्व

Last Updated 21 Sep 2017 12:33:23 AM IST

शक्ति उपासना का इतिहास बहुत प्राचीन है. आदिकाल से मानव ने सृष्टि की नियामिका शक्ति को स्वीकार किया है. आदि ग्रंथ वेद इसके प्रमाण हैं.


नवरात्र : शक्ति उपासना का पर्व

आद्यग्रन्थ ऋग्वेद में जहां एक ओर परमतत्व के पुरुष रूप की उपासना की गई है, वहीं दूसरी ओर उसके स्त्रीलिंग की उपासना भी मिलती है. शक्ति उपासना का मूल आधार आद्यग्रन्थ ऋग्वेद की द्यावापृथ्वी की कल्पना है, जिसमें पृथ्वी स्त्री मानी गई है और आकाश पुरुष. इन दोनों के तादात्म्य की चर्चा ऋग्वेद में अनेक बार की गई है. युग्म रूप में इनका अनेक सूत्रों में आह्वान हुआ है, जिनमें इन्हें माता-पिता कहा गया है.

आर्यों के एक वर्ग ने जहां पितृसत्ता की खोज और उपासना की है, वहीं दूसरे वर्ग ने मातृसत्ता की खोज करके उसकी उपासना एवं महत्त्व का मार्ग निर्दिष्ट किया है. मनु ने सहस्त्र पिताओं की तुलना में एक माता के गौरव को अधिक स्वीकार किया है. माता के प्रति आर्य जाति की इस आस्था ने ही शक्ति पूजा को जन्म दिया. इसी भावना से प्रेरित होकर ऋग्वैदिक काल में देवताओं की पूजा के साथ-साथ देवियों की पूजा के संकेत भी मिलते हैं. ऋग्वेद में पृथ्वी, रात्रि, वाक्, सरस्वती, पुरंध्रि, धिष्णा, इडा, वृहद्विवा, राका, सिनीवाली, पृश्नि, सरण्यू, इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, रुद्राणी, अश्विनी और श्रद्धा आदि देवियों का उल्लेख है. ऋग्वेद के दशम मण्डल के एक सूक्त में वाक् यानी वाणी की देवी के रूप में स्तुति की गई है. इसमें देवी की महिमा का बहुत ही उदात्त वर्णन है. तदनुसार वाक् ही समस्त देव शक्तियों की मूल है. धर्मसूत्रों में भी शक्ति तत्व को स्वीकार किया गया है. धर्मसूत्रों के समान ही गृह्यसूत्रों में शिवपत्नी का उल्लेख है. गृह्यसूत्रों में शिवमूर्ति की उपासना के साथ-साथ देवी पूजन की विधियां बताई गई हैं. इसमें प्रथम बार उनको दुर्गा नाम दिया गया है.

रामायण में देवी के दुर्गा नाम का उल्लेख है. एक स्थल पर उन्हें रुद्राणी कहा गया है. अनेक स्थलों पर उन्हें अन्य देवताओं से भी उत्कृष्ट माना गया है. देवतागण भी उनके सामने आंख उठाने का साहस तक नहीं कर सकते. शक्ति का पूर्ण विकसित रूप शाक्त पुराणों में मिलता है. देवी उप पुराण प्राचीन एवं प्रमुखतम शाक्त उप पुराणों मे से एक है. इसमें मुख्यत: देवी का चितण्रयुद्धरत यानी रक्षा करने वाली देवी के रूप में हुआ है. ‘कालिका उप पुराण’ भी शाक्त पुराण है, जिसमें कामाख्या को प्रधान देवी माना गया है. तदनुसार कामाख्या ही प्रधान देवी है, जो वास्तव में विभिन्न कार्यों  के सम्पादन के लिए नाना रूप धारण करती है. आदि शक्ति के रूप में देवी के स्वरूप का वर्णन मार्कण्डेय पुराणोक्त दुर्गासप्तशती में मिलता है.

श्रीमद्देवीभागवत् पुराण शाक्तमत का स्वतंत्र पुराण है, जिसमें देवी को विश्व की नियामिका अधिष्ठात्री चैतन्यमयी शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है. ‘सर्ववाल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्’ यह लोकार्ध ही देवी भागवत् का मूल वचन है. इसके द्वारा ही देवी भागवत् में वर्णित आद्याशक्ति के वास्तविक स्वरूप के दर्शन होते हैं. स्पष्ट है कि देवी उपासना बहुत प्राचीन है, जिसके उदभव सूत्र आद्यग्रंथ ऋग्वेद के मंत्रों में उपलब्ध होते हैं. शक्ति उपासना का बीजारोपण वेदों से ही हो चुका था. वैदिक युग से प्रारम्भ होकर प्रत्येक युग में शक्ति उपासना प्रचलित थी. शक्ति को स्त्रीरूपा और देवताओं की सहायिका माना गया है. इसके अतिरिक्त इन्हें जगतजननी, सृष्टिकर्ता आदि की भी उपमा दी गई है.

दुर्गा सप्तशती में पहली बार उनकी शक्ति रूप की उपासना की गई है, जिसमें नारीत्व की महिमा का वर्णन है. दुर्गा का आविर्भाव विष्णु और रुद्र के क्रोध से हुआ. देवी के शरीर में सभी देवताओं का वास है. बौद्धसिद्धों और तांत्रिकों की देवी उग्रतारा, प्रज्ञापरामिता और महामुद्रा में शक्ति के रूप में देवी दुर्गा की ही कल्पना है. नवरात्रि का यह पर्व विशेषकर आदि शक्ति की पूजा के लिए है, जिसे मां दुर्गा के नाम से पुकारा जाता है. दुर्गा शक्ति की अधिष्ठात्री है. इसे नकारा नहीं जा सकता. चैत्र और शरद माह के नौ दिन जोकि नवरात्र कहे जाते हैं, शक्ति उपासना के विशिष्ट पर्व माने जाते हैं. सच तो यह है कि नवरात्रि दुर्गा मां के शक्ति स्वरूप का आराधना पर्व है. यथार्थ में यह पूजा आसुरी प्रवृत्ति पर विजय के उपलक्ष्य में होती है. अत: आज जो कुछ हो रहा है, उससे निपटने का जिम्मा केवल पुरुषों का ही नहीं है, स्त्री को भी अपनी अस्मिता की रक्षा की खातिर रण में कूदना होगा और इस संक्रमणकाल में समाज की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना होगा.

ज्ञानेन्द्र रावत


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