समाज निर्माण

Last Updated 21 Sep 2017 12:30:46 AM IST

समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है. व्यक्ति जैसे होंगे वैसा ही समाज बनेगा. इसलिए व्यक्तियों को श्रेष्ठ बनाने का मतलब है-समय को अच्छा बनाना और समय को अच्छा बनाने का मतलब है-युग के प्रवाह को बदल देना.




श्रीराम शर्मा आचार्य

युग का प्रवाह बदल देना अर्थात समाज को बदल देना. समाज को बदल देना अर्थात व्यक्तियों को बदल देना. दृष्टिकोण हमारा गलत होता है, तो हमारे क्रियाकलाप गलत होते हैं और गलत क्रियाकलापों के परिणाम स्वरूप जो प्रतिक्रियाएं होती हैं, जो परिणाम सामने आते हैं, वे भयंकर दुखदायी होते हैं.

इसके निवारण के लिए आवश्यक है मनुष्य का चिंतन और शिक्षण बदल दिया जाए. इसकी चार विधाएं हैं-साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा. ये चारों ऐसे हैं, जिनमें से एक को भी आत्मोत्कर्ष के लिए छोड़ा नहीं जा सकता. चारों आपस में अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं.

पहली है-उपासना और साधना. उपासना और साधना -इन दोनों को मिलाकर एक पूरी चीज बनती है. उपासना का अर्थ है-भगवान पर विश्वास, भगवान की समीपता. उपासना माने भगवान के पास बैठना, नजदीक बैठना. इसका मतलब यह हुआ कि उसकी विशेषताएं हम अपने जीवन में धारण करें. उपासना का अर्थ यह है कि हम भगवान का भजन करें, नाम लें, जप करें, ध्यान करें, पर साथ-साथ हम इस बात के लिए भी कोशिश करें कि हम भगवान के नजदीक आते जाएं.

हमको ईश्वर जैसा बनने का प्रयत्न करना चाहिए. ईश्वर जैसे बनें न कि ईश्वर पर हुकुम चलाएं और उनको यह आदेश दें कि आपको ऐसा करना चाहिए. आपको किसी भी हालत में हमारी मांगें पूरी करनी चाहिए. उपासना का तात्पर्य अपनी मनोभूमि को इस लायक बनाना है कि हम भगवान के आज्ञानुवर्ती बन सकें. उनके संकेतों के इशारे पर अपनी विचारणा और क्रियापद्धति को ढाल सकें.

उपासना-भजन इसीलिए किया जाता है. साधना-साधना का अर्थ है  अपने गुण, कर्म, स्वभाव को साध लेना. वस्तुत: मनुष्य चौरासी लाख योनियों में घूमते-घूमते उन सारे प्राणियों के कुसंस्कार अपने भीतर जमा करके ले आया है, जो मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक नहीं हैं, बल्कि हानिकारक  हैं, तो भी स्वभाव के अंग बन गए हैं. इस अनगढ़पन को ठीक कर लेना, सुगढ़पन का अपने भीतर विकास कर लेना, जिसको हम मानवोचित कह सकें-साधना है.



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