शरीर का विज्ञान

Last Updated 01 May 2017 05:03:12 AM IST

शरीर के निर्माण में क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर का योगदान है. अर्थात मानिसक शक्तियों में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार प्रमुख हैं.


सुदर्शनजी महराज (फाइल फोटो)

इसके अतिरिक्त आत्मतत्व जो प्राण ऊर्जा के रूप में हमें प्रकृति से प्राप्त होते हैं. यही प्राण ऊर्जा जो आत्मा बनकर हमारे शरीर को चेतनावान बनाती है. इसी चेतना का नाम आत्मा है. इस तरह हमारे शरीर में भौतिक और आधिभौतिक योग है. विज्ञान की भाषा में हमारा शरीर अणु और परमाणुओं से बना है. अणु अर्थात भौतिक तत्व और दूसरा है विभु तत्व.


यह प्राण तत्व को संचालित करता है. हमारे शरीर के लिए दोनों ही आवश्यक हैं. भौतिक पदार्थ से बना शरीर इसलिए आवश्यक है कि इसे कर्म करना पड़ता है. और इस शरीर को जीवित रखने के लिए विभु तत्व की इसलिए आवश्यकता है कि यह जीवित रह सके. बिना प्राण तत्व के हमारे शरीर का कोई अर्थ नहीं है. बिना प्राण के शरीर तो मिट्टी है. इसलिए हमारे शरीर में प्राण तत्व की प्रधानता है. लेकिन शरीर को भी भुलाया नहीं जा सकता.

अत: दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं- शरीर और प्राण. जिस प्रकार हमारी गाड़ी बहुत कीमती है, लेकिन अगर उसमें तेल-पानी न हो तो गाड़ी चल नहीं सकती. लेकिन केवल तेल-पानी हो और गाड़ी में कोई खराबी हो तो भी गाड़ी चल नहीं सकती. ठीक उसी प्रकार आवश्यक है कि दीर्घायु बनने के लिए शरीर स्वस्थ रहे, शरीर के अंगों में कोई बीमारी न हो और जिस प्राण ऊर्जा से शरीर जीवित है उसे भी पुष्ट बनाकर रखा जाए.



सरकार के द्वारा गाड़ी की औसत आयु 15 वर्ष बताई जाती है. इसके बाद गाड़ी चलने लायक नहीं रहती. लेकिन प्रत्यक्ष प्रमाण है. मैंने सन 1984 में एक एम्बेसडर गाड़ी खरीदी थी जो आज तक चल रही है. हां यह जरूर है कि आजकल उसकी देखभाल अधिक करनी पड़ती है. इसी आधार पर मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि जब लोहे की गाड़ी को 30-40 वर्षो तक चलाया जा सकता है तो इस शरीर को 100 वर्षो तक क्यों नहीं चलाया जा सकता.

बुढ़ापा एक ऐसी भीषण बीमारी है जिसे कोई पसंद नहीं करता. आज सड़क पर जाते हुए किसी बूढ़े व्यक्ति को देखकर हमारे मन में आदर नहीं होता. यह जानते हुए भी कि कल हम भी ऐसी स्थिति में खड़े होने वाले हैं. फिर भी हमें इसका बोध नहीं होता. हम लगातार अपने बुजुर्गों को अपमानित करते हैं, उन्हें गाली देते हैं और कभी-कभी तो उनके साथ बुरा व्यवहार भी करते हैं.

 

 

सुदर्शनजी महराज


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