खूनी विचारधारा का अंत हो

Last Updated 01 May 2017 05:54:09 AM IST

दो दिनों में हिन्दुस्तान पर दो हमले हुए. कश्मीर में जिहादियों ने खून बहाया तो सुकमा में माओवदियों ने. दोनों खूनी विचारधाराओं का परिणाम है. इनका भारत की जमीन पर समागम, देश के अखंडता के हित के लिए अब उपेक्षित नहीं किया जा सकता.


आर.एस.एन.सिंह (फाइल फोटो)

यह समागम की प्रतिक्रिया काफी पहले शुरू हुई. दिल्ली के कई मंचों पर लेखिका अरुंधति रॉय और कश्मीर में हुर्रियत के कट्टरपंथी धड़े के नेता सैयद अली शाह गिलानी साथ-साथ दिखे. फिर यह जेनयू पहुंचा. इसके रचयिता पाकिस्तान दूतवास के आईएसआई अधिकारी इकबाल चीमा थे. उन्हें बाद में भारत से निष्कासित किया गया, जो हमने देशद्रोही प्रदर्शन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और जाधवपुर विश्वविद्यालय में देखा, कुपवारा और सुकमा में उसी का खूनी स्वरूप था. आश्चर्य और दुख की बात है कि ये दोनों विचारधारा-जिहाद और माओवाद विदेशी हैं. अगर इन खूनी विचारधाराओं को नहीं कुचला गया तो यह विचारधाराएं भारत को लहूलुहान कर देगी. और जो भी विचारधारा या क्रांतिकारी दर्शन इस मिट्टी से नहीं निकली हो, वह तबाही ही लाती है. यह मैली और दूषित विचारधाराएं हिन्दुस्तान के बाजुओं से हृदय तक पहुंच गई है. और अब तो दोनों खूनी विचारधारा का समावेश हो रहा है. जिहाद अगर पाकिस्तान के द्वारा संचालित है तो माओवाद का समर्थक चीन और कुछ यूरोपीय वाम अतिवादी संगठन है.

यह तमाम ताकतें नेपाल माओवादियों को भी सहायता करते हैं. 2012 में माओवादियों के वैश्विक बैठक में भारत के माओवाद आंदोलन को सबसे बेहतरीन मॉडल माना गया. यह बैठक जर्मनी के हैम्बर्ग शहर में हुई थी. नेपाल में यूरोपीय देशों का माओवाद क्रांति में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. याद रहे कि बिनायक सेन के ट्रायल का जायजा लेने एक यूरापियन कमीशन की टीम भारत आई थी. यह देश कि न्यायिक प्रणाली पर विदेशी तमाचा था. बरी होने के बाद उस शख्स को योजना आयोग के एक स्वास्थ्य कमिटी का सदस्य बनाया गया. आखिर इस माओवादी कि इतनी पहुंच कैसे? सोनिया गांधी के राष्ट्रीय सलाहकार समिति में माओवादियों के घोर समर्थक थे. ऐसे समर्थक वकील, प्रोफेसर, एक्टिविस्ट, मीडिया हाउसेज के रूप में भरे पड़े हैं. अभिव्यक्ति की आजादी और अंग्रेजी भाषा की आड़ में यह सफेद कॉलर अपराधी कोई भी भारत विरोधी हवा फैलाने में अभी तक सक्षम साबित हुए हैं. अभी कुछ समय पूर्व दिल्ली के एक प्रोफेसर जीएन साईबाबा को न्यायिक सजा सुनाई गई. इस प्रोफेसर ने एक विद्यार्थी को महाराष्ट्र के नक्सल प्रभावित क्षेत्र गढ़चिरौली में पांच लाख रुपया वहां के आदिवासी नक्सली नेता को देने के लिए कहा था. दिल्ली के शैक्षणिक संस्थान, बुद्धिजीवी संस्थान, न्यायिक संस्थान ऐसे साईबाबा से भरे पड़े हैं. जो भी कन्हैया कुमार के समर्थन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में था, वह किसी न किसी रूप से माओवादियों से जुड़ा है.

अरब से निकला इस्लाम पर्शिया, मध्य एशिया और अफगानिस्तान से होकर हिन्दुस्तान आया. इस सभी ने अरब संस्कृति को नहीं माना, क्योंकि इनकी अपनी संस्कृतियां कहीं ज्यादा विकसित थी. तलवार के डर से लोगों का धर्म बदला जा सकता है, संस्कृति जिसकी भाषा एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, नहीं बदली जा सकती. इसीलिए पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना. हिन्दुस्तान ने भी अरब इस्लाम के कट्टरपंथी और जिहादी पहल को नकारा. अरब इस्लाम के अनुयायी लेकिन भारत पर हमेशा चोट करते रहे. अकबर के जमाने में सरहिन्दी और औरंगजेब के शासनकाल के तुरंत बाद शाह वलीलुल्लाह थे. दोनों हिन्दुस्तान पर शरियत कानून की वकालत कर रहे थे. वलीलुल्लाह ने ही अहमद शाह अब्दाली को भारत पर हमला करने के लिए पत्र लिखा था.



जहां तक कश्मीर की बात है, असल मसला इस्लामिक कट्टरता का है. दरअसल बीमारी, वहाबी और जिहादी विचारधारा की है. असली गुनहगार वहां के नेता हैं. हुर्रियत और मुख्यधारा वाली पार्टियों के नेता जिन्होंने पाकिस्तान के प्रभाव में मदरसों और मस्जिदों को पिछले तीन दशक में संरक्षक देकर घाटी में पनपने दिया. मदरसों और मस्जिदों में बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से मौलवियों को बुलाकर कश्मीरियत का गला घोंटा और आतंकवाद की फैक्टरियां स्थापित कर दीं. जबकि स्थानीय युवाओं को रोजगार मुहैया कराना प्राथमिकता पर होना चाहिए था. हास्यास्पद है कि आजकल यही नेता आतंकवाद का रोना रोते हैं और घाटी की स्थिति के लिए आरोप-प्रत्यारोप की सतही राजनीति करते हैं. इसलिए कश्मीर घाटी में विध्वंस, रक्षा साजो-सामान की कमी और सतर्कता के अभाव के चलते हो रही है. घाटी की बर्बादी आत्मघाती हमलावरों द्वारा हो रही है. जो पाकिस्तान और घाटी की आतंकवाद की फैक्टरियों में तैयार हो रहे हैं.

कश्मीर का खून वहाबीवाद से निकली जिहादी विचारधारा कर रही है. और हमने इस धार्मिक विचारधारा के समाधान की दिशा में कभी भी बौद्धिक साहस का परिचय नहीं दिया. परिणामस्वरूप अब पूरा हिन्दुस्तान ही इसके चपेटे में आ रहा है. यही नहीं सऊदी अरब ने बांग्लादेश के हर शहर में वहाबी मस्जिदें बनाने के लिए दो अरब रुपया देने की घोषणा की है. वह भी सिर्फ इसलिए कि उसे कहीं यह महसूस हुआ है कि शेख हसीना धर्मनिरपेक्षता के रास्ते पर अग्रसर हैं, जिससे वैश्विक जिहाद को नुकसान पहुंच रहा है. वैश्विक जिहादी ताकतें जिसमें आईएसआईएस शामिल है, बांग्लादेश को हिन्दुस्तान के पूर्वी हिस्से में और म्यामांर में इस्लामिक जिहाद के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण आधार मानती है. इस लिहाज से यह अनदेखी भारत के लिए परेशानी का सबब भी बन सकती है. सो, सरकार को अपने पड़ोसी धर्म का मान-सम्मान रखते हुए ऐसे किसी भी कदम की तरफ भी सतर्क रहना होगा.
(लेखक पूर्व खुफिया अधिकारी रहे हैं)

 

 



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