सृष्टि

Last Updated 12 Apr 2017 03:12:12 AM IST

एक समस्त सृष्टि केवल एक संगठन है जहां सभी परमाणु विशेष रूप में संगठित होकर विशेष तत्व बनाते हैं, और उसके ये विशिष्ट रूप उनमें निश्चित गुण लाते हैं.


श्री श्री रविशंकर

मृत्यु, क्षय, रूपांतरण तब होता है, जब परमाणु अपने रूप से ऊब कर फिर से संगठित होने का निश्चय करते हैं.

उदाहरण के लिए देखें कि सेव के परमाणु जब कहते हैं, ‘बहुत हो गया सेव बनकर रहना’, तब सड़न शुरू होती है. कह सकते हैं कि यदि रूप-आकार से उकताहट न होगी तो नाश भी नहीं होगा. एक व्यवस्थित अवस्था से दूसरी अवस्था में जाने की प्रक्रिया भी व्यवस्थित है.

इस प्रक्रिया की इसी अल्पकालिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्तता कहते हैं. अल्पकालिक व्यवस्था को एक उत्प्रेरक या प्रेरक की आवश्यकता होती है, और ज्ञान ऐसा प्रेरक है. संगठन या व्यवस्था से तुम्हें बिल्कुल छुटकारा नहीं. कहने में कोई गुरेज नहीं कि समाज से तुम औपचारिकता को नहीं हटा सकते. तमाम कोशिशें कर देखिए. उसे नहीं ही हटा सकते. उसका अपना एक विशिष्ट स्थान है.

परंतु मित्र-भाव के अभाव में औपचारिकता दिखावटी होती है. बल्कि कहा जाए कि केवल मित्र-भाव होना अस्त-व्यस्तता पैदा कर सकता है, और उसमें कभी-कभी बेपरवाही भी महसूस हो सकती है. बेशक, औपचारिकता संपर्क को बेहतर बनाती है, और मित्र-भाव अपनापन बढ़ाता है. संपर्क की तभी आवश्यकता होती है जब दो हों. औपचारिकता द्वैतवाद को कायम रखती है.

और संगठन औपचारिकता पर आधारित होते हैं,  प्रेम और ज्ञान मित्र-भाव पर आधारित. प्रेम और ज्ञान को विकसित होने के लिए एक अनौपचारिक, मैत्रीपूर्ण वातावरण की बेहद आवश्यकता है. यदि सभी   औपचारिकताएं छोड़ दी जाएं तो संगठन टिक ही नहीं सकता और व्यवस्था कायम नहीं रह सकती. तुम्हारे सभी कार्य औपचारिकता के नपे-तुले कदम ही तो हैं. 

भक्ति अनौपचारिक है, अस्त-व्यस्तता से पूर्ण. मित्र-भाव और सौजन्यता अपना स्वभाव है. हमारे अस्तित्व का अन्त:करण और औपचारिकता बाहरी आवरण हैं, और जब यह बाहरी आवरण झीना होता है, लैम्प शेड की तरह-केवल तभी अंदर की रोशनी बाहर प्रकाशित हो सकती है. परंतु आवरण यदि अपारदर्शी हो तो तुम रोशनी को नहीं देख सकते. अत: औपचारिकता और सौजन्यता से संतुलन बनाओ. यही अभीष्ट है, और जरूरी भी.



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