भगवान परशुराम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं। इनकी गणना देवताओं में होती है।
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वैशाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम पहर में वायुमंडल में उच्च के 6 ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ है। इस स्थिति को प्रदोषव्यापिनी रूप में ग्रहण करना चाहिए‚ क्योंकि भगवान परशुराम का प्राकट्यकाल प्रदोषकाल ही है।
भगवान परशुराम महÌष जमदग्नि के पुत्र थे। पुत्र उत्पत्ति के निमित्त इनकी माता तथा विश्वामित्र की माता को प्रसाद मिला था जो संयोगवश आपस में बदल गया था। इससे रेणुका पुत्र परशुराम जी ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे‚ जबकि विश्वामित्र जी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर भी ब्रह्मÌष हो गए।
जिस समय इनका अवतार हुआ था उस समय पृथ्वी पर दुष्ट क्षत्रिय राजाओं का बाहुल्य हो गया था। उन्हीं में से एक सहस्त्रार्जुन ने इनके पिता जमदग्नि का वध कर दिया था जिससे क्रुद्ध होकर परशुरामजी ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं से मुक्त किया।
भगवान शिव के दिए परशु (फरसे) को धारण करने के कारण इनका नाम परशुराम पड़ा।
व्रत के दिन व्रती नित्यकर्म से निवृत्त होकर प्रातः स्नान करके सूर्यास्त तक मौन रहें और सायंकाल में पुनः स्नान करके भगवान परशुराम की मूÌत का षोडशोपचार पूजन करें तथा मंत्र से अर्घ दें। रात्रि जागरण कर इस व्रत में श्रीराम मंत्र का जप करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
| | पंडि़त प्रसाद दीक्षित, सहारा न्यूज ब्यूरो | वाराणसी |
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