गेहूं के साथ ’घुन‘ नहीं पिसने देगा भारत

Last Updated 22 May 2022 12:02:36 AM IST

एक पुराने मुहावरे में सदियों से अपने साथ घुन को भी पिसवाने का दोष झेल रहा गेहूं इन दिनों एक नए विवाद का विषय बन गया है।


गेहूं के साथ ’घुन‘ नहीं पिसने देगा भारत

दुनिया की गेहूं की जरूरत पूरा करने के लिहाज से रूस और यूक्रेन अहम देश हैं लेकिन वहां युद्ध छिड़े होने के कारण सप्लाई बाधित है जिससे दुनिया भर में गेहूं की किल्लत हो गई है। ऐसे में गेहूं की खपत करने वाले देश भारत से इसकी भरपाई की उम्मीद लगाए बैठे थे, लेकिन गेहूं निर्यात से भारत के इनकार के बाद इन देशों में हड़कंप मचा हुआ है।

13 मई को सरकार ने सभी निजी गेहूं के निर्यात पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी थी। इस फैसले से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में गेहूं की कीमतों में सुनामी आ गई है। शिकागो में बेंचमार्क गेहूं सूचकांक 5.9 फीसद तक बढ़ गया, जो दो महीने में सबसे अधिक है। ब्रेड और केक से लेकर नूडल्स और पास्ता तक हर चीज की कीमत बढ़ी है, क्योंकि दुनिया के कमोडिटी बाजारों में गेहूं की कीमतें बढ़ गई हैं। हालात से हलकान कम-से-कम 47 देशों ने भारत से गेहूं की मांग की है, कई अन्य ने संकेत दिया है कि उन्हें भी इनकी आवश्यकता होगी। हालत यह हो गई है कि गेहूं की मांग करने वाले देशों की सूची को लगातार बढ़ते देख कर चिंतित आयातक देश भारत से अपने द्विपक्षीय संबंधों को आधार बनाकर राजनयिक अनुरोध की कूटनीति पर भी उतर आए हैं। लगभग एक दर्जन देशों ने विदेश मंत्रालय से संपर्क कर जानना चाहा है कि क्या भारतीय गेहूं के लिए उनके अनुरोध को पूरा किया जाएगा?

एक तरफ जरूरतमंद हैं जो भारत के सामने हाथ फैला रहे हैं, तो दूसरी तरफ वैश्विक बाजार को अपनी मुट्ठी में रखने का जतन करने वाले वो देश भी हैं जो आंखें दिखाकर भारत पर फैसला बदलने का दबाव भी डाल रहे हैं। जर्मनी में जी-7 देशों ने एक बैठक में भारत के फैसले की आलोचना की है और इससे स्थिति के हाथ से बाहर जाने की चेतावनी दी है। 19 मई को अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के फैसले पर कमोबेश वही बातें दोहराई जो जी-7 देश ने कहीं।

वैश्विक राजनीति में स्थितियों के पलट कर ‘शीष्रासन’ लगाने का यह आदर्श उदाहरण कहा जा सकता है। भारत के गेहूं के निर्यात पर रोक के फैसले पर जो अमेरिका आज नाराजगी जता रहा है, वही अमेरिका कभी हमें हमारी गेहूं की जरूरत पूरी करने के नाम पर धमकी देता रहा और ‘भिखारियों का देश’ बताया करता था। ये आजादी के बाद का वो दौर था जब हम गेहूं के लिए अमेरिका पर निर्भर थे। 1964 में देश में सालाना केवल एक करोड़ टन गेहूं पैदा होता था। मानसून के दगा देने की वजह से भारत में अनाज के उत्पादन में गिरावट आ रही थी। साल 1964 और 1965 में भारत को सूखे तक का सामना करना पड़ा था लेकिन यही वो समय था जब सूखे के कारण भारत ने आखिरी बार अनाज संकट देखा क्योंकि हरित क्रांति के बूते भारत ने 1970 तक अपना गेहूं उत्पादन दोगुना कर लिया और फिर 1980 आते-आते अनाज उत्पादन में पूरी तरह आत्मनिर्भर बन गया। अमेरिका को ध्यान रहे कि यह 21वीं सदी का वह दौर है, जब हम ‘शिप टू माउथ’ की स्थिति को बहुत पीछे छोड़कर दुनिया के प्रमुख गेहूं और चावल उत्पादक देश बन चुके हैं। अमेरिका को यह भी ध्यान रहे कि वैश्विक राजनीति में अपनी पहचान बनाने के लिए भी भारत अब किसी का मोहताज नहीं रहा है, बल्कि आज भारत के साथ जुड़कर दूसरे देश दुनिया में अपनी साख बनाने की राहें तलाशते हैं। अमेरिका भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए जी-7 या अमेरिका यह समझने की भूल कतई न करें कि भारत उनके दबाव में आकर निर्यात का फैसला बदल लेगा।

दिलचस्प बात यह है कि इस पूरे मामले में चीन ने भारत की स्थिति का बचाव करते हुए कहा कि भारत को दोष देने से वैश्विक खाद्य संकट का समाधान नहीं होगा। वैसे भी भारत भले ही दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक हो, लेकिन वह कभी इसका प्रमुख निर्यातक नहीं रहा क्योंकि गेहूं की अधिकांश फसल घरेलू बाजारों में बेची जाती है। बेशक, रूस पर प्रतिबंध से पहले, भारत ने इस साल रिकॉर्ड 10 मिलियन टन गेहूं भेजने का लक्ष्य भी रखा था। यह एक तरह से हालिया यूरोप दौरे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘भारत दुनिया का पेट भरने के लिए तैयार है’ वाले बयान की पुष्टि करने जैसा ही था। लेकिन तब हालात और थे। हमारे प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में पड़ रही असामान्य गर्मी के कारण उपज में व्यापक कमी आने से भारत को यह फैसला लेना पड़ा। फसल का बड़ा हिस्सा गर्मी के कारण सूख गया था और कुछ मामलों में इंसानों के खाने लायक भी नहीं बचा था।

नतीजतन, गेहूं के उत्पादन का जो आधिकारिक अनुमान पहले 113.5 मिलियन टन था, वो अब घटकर 105 मिलियन टन रह गया है। ऐसे में सरकार ने निर्यात प्रतिबंध का एक फैसला लेकर तीन प्रमुख उद्देश्यों को सुनिश्चित किया है। पहला देश की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना और मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखना, दूसरा खाद्य की कमी का सामना करने वाले देशों की मदद करना और तीसरा आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत की विसनीयता को बनाए रखना जिसके लिए भारत प्रतिबंध के बावजूद 13 मई से पहले हुए निर्यात करार को पूरा भी कर रहा है।

संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की एक-एक आपत्ति को मेरिट के आधार पर खारिज करते हुए भारत ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि गेहूं निर्यात पूरी तरह नहीं रोका गया है, बल्कि उसे नियंत्रित किया गया है। जिन देशों को खाद्य सुरक्षा के लिए गेहूं की जरूरत होगी, उनके प्रस्तावों को भारत सहानुभूति के आधार पर वरीयता भी देगा। सरकार के इस दावे में भी दम दिखता है कि प्रतिबंध लगाकर उसने अन्य देशों की तरह कोई अनुचित या कठोर नीतिगत उपाय नहीं किया है। यूक्रेन संकट और अगले सीजन के लिए फसल खराब होने के मद्देनजर कई देशों ने अपने खाद्य निर्यात पर निर्यात कर के रूप में प्रतिबंध लगा रखे हैं। इसी तरह भारत ने पश्चिम को आईना दिखाते हुए यह भी साफ कर दिया कि कम-से-कम वो ऐसे हालात नहीं पैदा कर रहा है जिसमें गेहूं का विवाद कोविड टीकों की तरह गैर-बराबरी की लड़ाई बन जाए जिसमें अमीर देशों ने कोविड टीकों की ऐसी जमाखोरी की जिसके कारण गरीब और कम साधन-संपन्न देश अपनी आबादी को पहली खुराक देने में भी जूझते नजर आए।

इससे उलट भारत ने हजारों मीट्रिक टन गेहूं, आटा और दाल के रूप में अपने पड़ोसियों और अफ्रीका समेत कई अन्य देशों को उनकी खाद्य सुरक्षा मजबूत करने के लिए दिए हैं। अफगानिस्तान में बिगड़ते मानवीय हालात के बीच जहां भारत ने 50,000 मीट्रिक टन गेहूं भेजा है, वहीं श्रीलंका को भी उसके मुश्किल वक्त में खाद्य सहायता समेत दूसरी मदद पहुंचाई है। पड़ोसियों और मानवता की मदद के अपने संकल्प से एक इंच भी विचलित नहीं होते हुए भारत ने साफगोई से दुनिया को यह भी जता दिया है कि निर्यात का फैसला सरकार के स्तर पर होगा जैसा कि वैश्विक बाजार में हर देश करता है। यहां तक कि घरेलू जरूरत हुई तो भारत तमाम सवाल ताक पर रखकर अपवाद के तौर पर इंडोनेशिया से गेहूं के बदले पाम आयल का सौदा भी करेगा।

बीते कुछ समय में यह दूसरा मौका है जब भारत ने दुनिया को अपनी कूटनीति में बदलाव का संकेत दिया है। इससे पहले यूक्रेन पर हमले के बाद रूस पर लगी आर्थिक पाबंदियों के बावजूद हथियार और तेल लेने के फैसले पर अडिग रहकर भारत दुनिया को स्पष्ट कर चुका है कि उसकी विदेश नीति अब विदेश से नहीं, बल्कि देश की जरूरतों और राष्ट्रहित से संचालित होती है। गेहूं पर छिड़ी जंग में भारत एक बार फिर उसी ‘रंग’ में दिख रहा है।

उपेन्द्र राय


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