तेल देखो, तेल की धार देखो

Last Updated 02 Apr 2022 11:31:19 PM IST

रूस-यूक्रेन युद्ध को देखकर मन में यह भाव क्यों आता है; इस संकट को सुलझाने से ज्यादा बाकी दुनिया की चिंता इस मसले से जुड़े किसी और ही विषय पर केंद्रित है?


तेल देखो, तेल की धार देखो

युद्ध खत्म कैसे हो इसके बजाय ज्यादा जोर इस बात पर है कि कौन किस ओर है? और यह कि जो वर्तमान में इस ओर नहीं है उसे इतिहास किस तरह याद करेगा? दिलचस्प बात यह है कि जिस इतिहास के नाम पर बदनामी का हौवा खड़ा किया जा रहा है, वही ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा हुआ है, जो बताते हैं कि समस्या के कथित कसूरवार देश पर प्रतिबंध समस्या का काल नहीं, बल्कि उसे विकराल बनाने के ही माध्यम साबित हुए हैं।  

अव्वल तो इन प्रतिबंधों का असर दिखने में ही काफी समय निकल जाता है, उस पर उतने समय में समस्या के सुलझ जाने पर ये प्रतिबंध किसी काम के नहीं रह जाते। सब-कुछ जानते-समझते भी अमेरिका की सरपरस्ती में लगभग पूरा पश्चिमी जगत येन-केन-प्रकारेण इसी जुगत में जुटा हुआ है कि बार-बार नाकाम हो चुके प्रतिबंधों वाले घिसे-पिटे फॉर्मूले को आजमा कर किसी तरह रूस पर नकेल डाल दी जाए। युद्ध क्षेत्र जिस तरह झुलस रहा है उसके बाद कहने की जरूरत नहीं कि प्रतिबंधों का असर न पहले हुआ है, न इस बार होता दिख रहा है। यूक्रेन पर आक्रमण शुरू होने के बाद अमेरिका समेत पश्चिम की ओर से रूस पर 5,000 के करीब बड़े-छोटे प्रतिबंध लाद दिए गए हैं। मुख्य तौर पर ये तेल और गैस की आपूर्ति से संबंधित हैं, जिसे रूस की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है। सोच यही है कि इस रीढ़ को तोड़ दिया जाए तो रूस के लिए खड़े रह पाना मुश्किल हो जाएगा, लेकिन यह दांव उल्टा पड़ता दिख रहा है। कुछ रूस की रूबल में सौदे वाली होशियारी के कारण, कुछ कई देशों की तेल और गैस पर निर्भरता की मजबूरी के कारण। युद्ध छिड़ने के बाद से भारत ने रूस से किफायती दामों पर लाखों बैरल कच्चा तेल खरीदा है, और यह इस आधार पर तर्कसंगत है कि भारत ने यह कदम अपने नागरिकों की सुविधा को देखते हुए उठाया है। जर्मनी जैसे कई यूरोपीय देश भी ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। बेशक, भारत का यह फैसला अमेरिका को नागवार गुजरा है, इसके बावजूद भारत दौरे पर आए डिप्टी एनएसए दलीप सिंह के गैर-जिम्मेदाराना बयान से पहले तक उसकी प्रतिक्रिया संयत ही रही थी।

दरअसल, रूस से तेल खरीद को लेकर अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों को यह लगता है कि रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों को भारत कम करके आंक रहा है। इसलिए ये देश भारत पर अपने बयानों से लगातार दबाव बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि रूस से सीमित मात्रा में किफायती तेल आयात पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन इसके साथ ही भारत बंदरगाहों, सोने और ऊर्जा क्षेत्रों से संबंधित रूस पर लगे कड़े प्रतिबंधों का भी वो सम्मान करे। हकीकत तो यह है कि भारत वैसे भी रूस से अपने तेल आयात में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं करेगा क्योंकि यूक्रेन में युद्ध के परिणामस्वरूप बढ़ी हुई बीमा दरों के कारण छूट के बावजूद रूसी तेल भारत के लिए महंगा है। साल 2021 में भी भारत ने रूस से लगभग 12 मिलियन बैरल तेल खरीदा था। कच्चे तेल का हमारा कुल आयात 175.9 मिलियन टन का है। इस लिहाज से यह केवल 2 से 5 फीसद के बीच है। इस वित्तीय वर्ष के 10 महीनों में भी भारत ने रूस से 4 लाख 19 हजार टन कच्चा तेल खरीदा है, जो हमारे कुल आयात का महज 0.2 फीसद है। रूसी कच्चे तेल को लेकर दूसरी समस्या यह है भारत में उसे प्रोसेस करने की क्षमता वाली ज्यादा रिफाइनिरयां भी नहीं हैं। ऐसे में रूस से तेल खरीद कर भारत अपनी जरूरत पूरी करने से कहीं अधिक बाकी दुनिया को यह बड़ा संदेश दे रहा है कि पश्चिम के प्रतिबंधों के बावजूद उसकी ओर से दोनों देशों के पुराने रिश्तों की गर्मजोशी में कोई कमी नहीं आई है। और अगर भारत सरकार देशहित में भी ऐसा कर रही है, तो यह उसका अधिकार है। क्या अमेरिका इस नीति पर नहीं चला? ऐसे में सवाल तो यह पूछा जाना चाहिए कि अमेरिका ने कब दुनिया के भले के लिए अपने हित का बलिदान दिया? ज्यादा पीछे न जाएं, तो डोनाल्ड ट्रंप के तो पूरे शासनकाल की पहचान ही ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति रही थी। अमेरिका बताए कि उसने इस दौर में कितनी अंतरराष्ट्रीय संधियों का पालन किया?

ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका ने मनमर्जी चलाकर ईरानी परमाणु समझौते को रद्द किया, पेरिस जलवायु समझौते से वो पीछे हट गया, उसने परमाणु-हथियार-नियंत्रण समझौतों को अपनी मौत मर जाने दिया और ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप से खुद को बाहर खींच लिया। इसमें अकेले अपनी जिद पूरी करने के लिए चीन से ट्रेड वॉर और बिना सूचना के जर्मनी से अमेरिकी सेना की वापसी के ऐलान को भी जोड़ा जा सकता है। दरअसल, अमेरिका ने हमेशा एकपक्षवाद को ताकत समझा है और अपने सहयोगियों को उसके अनुरूप व्यवहार करने के लिए मजबूर किया है। पिछले कुछ समय से ताकत का यह प्रदशर्न अमेरिका पर ही भारी पड़ा है, और वो मजबूत होने के बजाय समझौते के लिए मजबूर हुआ है। भारत से उसके संबंधों के संदर्भ में यही बात लागू होती है।

भारत की विदेश नीति स्वतंत्र है, और इसका आधार राष्ट्रीय हित है। भारत दौरे पर आए रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने इस बात को पकड़ते हुए न सिर्फ  गर्म लोहे पर हथौड़ा मारा है, बल्कि इसे ही दोनों देशों की दशकों की अटूट दोस्ती और भागीदारी का आधार बताया है। दरअसल, रूस के साथ हमारे संबंधों में तेल का मसला उतना बड़ा है ही नहीं जितना बड़ा इसे दिखाया जा रहा है। असल चिंता तो सुरक्षा से जुड़ी है। भारत, चीन के साथ लगती अपनी सीमा की सुरक्षा के लिए काफी हद तक रूसी सैन्य उपकरणों पर निर्भर है। 1962 में मिग-21 लड़ाकू विमानों की पहली खरीद के बाद से यह परंपरा टूटी नहीं है। रूस से भारत ने हाल ही में स्-400 वायु रक्षा प्रणाली सहित दूसरे हथियारों का बड़ा करार किया है, जिसकी डिलीवरी अभी भी लंबित है। जाहिर है न तो भारत की सुरक्षा जरूरतें रातों-रात बदल सकती हैं, न हथियारों के लिए रूस पर हमारी निर्भरता। यह एक तरह से हमारी विरासत है। जो रक्षा उपकरण हमें रूस से मिले हैं, उनके पुर्जे भी रूस ही बनाता है। ऐसे में उसकी जगह लेगा कौन?

इस सबके बावजूद पिछले एक दशक में भारत पश्चिमी देशों के भी करीब आया है। अब तो यह परस्पर सहयोग इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के कूटनीतिक और सैन्य आक्रमण को रोकने के लिए अमेरिका की रणनीति का केंद्र बिंदु भी बन चुका है। आज भारत अमेरिका के साथ 100 अरब डॉलर से अधिक का व्यापार कर रहा है, जबकि रूस के साथ यह तुलनात्मक आंकड़ा महज 8 अरब डॉलर है। इस सबसे यह स्पष्ट है कि अगर रूस पर प्रतिबंध लगाना अमेरिका की मजबूरी है, तो तेल, हथियार और चीन जैसी कई वजहों के कारण रूस से दशकों पुरानी दोस्ती निभाना भारत के लिए भी उतना ही जरूरी है। इसलिए अमेरिका के लिए भी यह बेहतर होगा कि वो भविष्य में भारत में चीन की घुसपैठ की आशंका में रूस की भूमिका पर सवाल करने के बजाय इस बात को तय करने की ज्यादा चिंता करे कि वर्तमान में यूक्रेन में जो घुसपैठ हो रही है, उसे रोकने में उसकी भूमिका क्या है?

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment