विश्व व्यवस्था में भारत का ‘अमृत काल’

Last Updated 02 Apr 2022 12:57:27 AM IST

रूस यूक्रेन युद्ध क्षेत्र सुलह के तमाम प्रयासों के बावजूद दुनिया भर की सामरिक और कूटनीतिक शक्तियों का अखाड़ा बना हुआ है। 40वें दिन की ओर बढ़ रहे युद्ध में अब भी दावा करना मुश्किल है कि ऊंट आखिर में किस करवट बैठेगा?


विश्व व्यवस्था में भारत का ‘अमृत काल’

रूस का पलड़ा बेशक, पहले दिन से भारी है, लेकिन लड़ाई के इतने लंबे खिंच जाने से विश्व व्यवस्था में उसका ‘रुतबा’ छलनी हुआ है। इस अपमान के कुछ छींटों ने खुलकर उसका साथ दे रहे चीन के दामन को भी दागदार किया है। जो दूसरा खेमा है, उसमें नाटो की हालत रूस जैसी और अमेरिका की चीन जैसी कही जा सकती है। ‘न तुम जीते, न हम हारे’ के जतन में दुनिया भर में सुलह का ‘अमृत’ निकालने के लिए मंथन चल रहा है, लेकिन बात बन नहीं रही है क्योंकि होड़ अमृत पीने की लगी है, गरल को गले के नीचे उतारने के लिए कोई तैयार नहीं है।

ऐसे समय में जब विश्व की अधिकांश शक्तियां यूक्रेन संकट को लेकर इस पार या उस पार हैं, भारत संतुलित रवैया अपना कर अशांत दुनिया की धुरी और शांति की उम्मीदों का केंद्र बन गया है। युद्ध क्षेत्र भले यूक्रेन में हो, शांति वार्ता भी बेशक, तुर्की में चल रही हो, लेकिन सुलह की जमीन तो भारत में ही तैयार हो रही है। जंग खत्म करने के लिए ‘जयशंकर फॉर्मूला’ उस लाइटहाउस का काम कर रहा है, जो समुद्र में भटक गए जहाजी बेड़ों को किनारे पर लगाने में मददगार होता है। साफ दिखाई दे रहा है कि इस हमले के बाद बनी परिस्थितियों में हर खेमा भारत को प्रभावित करने में जुटा है। चीन के विदेश मंत्री भारत से लौटे तो रूस के विदेश मंत्री के कदम भारत में पड़े। उनके पीछे-पीछे अमेरिका की रूस नीति के थिंक टैंक में अहम ओहदा रखने वाले डिप्टी एनएसए दलीप सिंह ने भी भारत का रुख किया। ब्रिटेन की विदेश मंत्री और नेपाल के प्रधानमंत्री इन दिनों भारत में ही हैं। तीन दिन बाद मैक्सिको के विदेश मंत्री का भारत आने का कार्यक्रम भी तय है। कोरोना से संक्रमित हो जाने के कारण इजरायल के प्रधानमंत्री नेफ्ताली बेनेट को भारत आने का कार्यक्रम आगे बढ़ाना पड़ा, वरना वो भी इस समय भारत में मंथन करते दिखाई देते। बेनेट का कार्यक्रम अब करीब बीस देशों से ज्यादा उन राष्ट्र प्रमुखों के साथ टकराएगा जो अगले कुछ दिनों में भारत आने वाले हैं।

बहु-ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था और भारत
यह सीधे-सीधे इस बात का प्रमाण है कि बहु-ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में भारत अब अहम किरदार है, और हर ध्रुव मानवता को विनाश से बचाने के लिए भारत की ओर देख रहा है। खासकर इस संकट को लेकर भारत जिस तरह अमेरिकी दबाव को भी दरकिनार कर खुद अपने लिए हितकारी जिस स्वतंत्र नीति पर अटल रहा है, उसने बाकी दुनिया को भी प्रेरित किया है। पूरे घटनाक्रम में भारत ने न तो रूसी हमले की निंदा की है, न ही रूस से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की किसी वोटिंग में हिस्सा लिया है, लेकिन साथ ही यह भी लगातार कहता रहा है कि कूटनीति का रास्ता अपना कर युद्ध को जल्द से जल्द खत्म किया जाना चाहिए। इसके लिए भारत ने यूक्रेन को मानवीय मदद भी भेजी है। इस सबके बीच रूस पर अमेरिका के 5 हजार से ज्यादा छोटे-बड़े प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए रूस से किफायती दामों पर कच्चे तेल का करार भी किया है, और वो भी डॉलर के बदले रूबल में। भारत का यह कदम अमेरिकी कूटनीति के लिए बड़ा झटका है। लेकिन हालात ऐसे हैं कि अमेरिका भी इस पर आपत्ति नहीं जता पा रहा है। अलबत्ता, उसने यह अपेक्षा जरूर जताई है कि लेन-देन में प्रतिबंधों के नियमों का पालन होगा। भारत दौरे पर आए डिप्टी एनएसए दलीप सिंह ने भी एलएसी पर चीन की घुसपैठ और रूस के रवैये को लेकर जो हौवा खड़ा करने की कोशिश की है, वो ‘भेड़िया आया’ वाले कथानक से अलग नहीं है, वरना यह बात दलीप सिंह भी जानते हैं, और चीन से निपटने के लिए अमेरिका का साथ भारत को बेशक, ताकतवर बनाता है, लेकिन रक्षा क्षेत्र में तेजी से आत्मनिर्भर हो रहा भारत अमेरिकी मदद के बिना भी चीन का सामना करने में सक्षम है।
हिंद महासागर में मालदीव से लेकर श्रीलंका तक भारत ने अपनी कूटनीति के जरिए चीन की बढ़त को जिस तरह सीमित किया है, वो किसी से छिपा नहीं है। कुछ दिनों पहले तक चीन समर्थित पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के कार्यकाल में मालदीव में भारत के खिलाफ ‘इंडिया आउट’ कैंपेन चला करता था। लेकिन वहां सत्ता पलटने के बाद अब दोनों देशों के बीच जुड़ाव भारत की ‘पड़ोसी पहले’ और मालदीव की ‘भारत पहले’ नीति पर आधारित है। आज मालदीव में ग्रेटर माले कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट, भारत में मालदीव के सिविल सेवकों का प्रशिक्षण, कार्गो पोत सेवाएं, एमएनडीएफ की क्षमता निमार्ण और प्रशिक्षण, गुल्हिफाल्हू पोर्ट प्रोजेक्ट और हुलहुमले क्रिकेट स्टेडियम जैसी बुनियादी ढांचे से जुड़ी भारत समर्थित कई परियोजनाएं आकार ले रही हैं। पिछले रविवार को विदेश मंत्री एस जयशंकर से मुलाकात में मालदीव के राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह की ओर से फिर आश्वासन दिया गया कि माले हमेशा भारत-प्रथम नीति का पालन करेगा।

चीन से एक कदम आगे
चीन से एक कदम आगे रहने की यही रणनीति श्रीलंका के संदर्भ में भी दिखती है। अपने सबसे बुरे आर्थिक दौर से गुजर रहे इस पड़ोसी देश में लोगों को जीवनरक्षक दवाइयां, ईधन और दूध पाउडर तक नहीं मिल रहा है। मदद के लिए श्रीलंका ने भारत और चीन, दोनों से गुहार लगाई है। चीन मदद का केवल आश्वासन दे रहा है, और उस भारी-भरकम कर्ज को माफ करने पर खामोश है, जिसे श्रीलंका की बदहाली का जिम्मेदार बताया जा रहा है। दूसरी ओर, भारत ने मानवीय पहल के तहत श्रीलंका के लोगों को दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुएं खरीदने के लिए एक बिलियन डॉलर और ईधन खरीदने के लिए 500 बिलियन डॉलर की क्रेडिट लाइन दी है। मालदीव और श्रीलंका इस बात के प्रमाण हैं कि चीन ने जिन-जिन देशों में घुसपैठ की है, उन देशों का बेड़ा गर्क हुआ है। पाकिस्तान इसकी ताजा मिसाल है। अमेरिका तो पहले से ही उसे पीठ दिखा चुका है, अब चीन भी पल्ला झाड़ने में देर नहीं करेगा। हमारे लिए पाकिस्तान की अस्थिरता का क्या असर होगा, इसके लिए इंतजार करना होगा क्योंकि जब-जब पाकिस्तान संकट में घिरा है, तब-तब कश्मीर भी ध्यान बंटाने की उसकी साजिश का हिस्सा बना है।

बहरहाल, मालदीव के बाद श्रीलंका पहुंचे विदेश मंत्री जयशंकर ने श्रीलंकाई द्वीपों पर हाइब्रिड बिजली परियोजनाएं स्थापित करने के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। पिछले साल दिसम्बर में सुरक्षा का हवाला देते हुए चीन ने तीन श्रीलंकाई द्वीपों पर ऐसी ही परियोजनाओं से अपने हाथ खींच लिए थे। हिंद महासागर में इसे भारत की चीन पर बड़ी रणनीतिक जीत के तौर पर लिया गया है। इसका असर हाल में भारत दौरे पर आए चीनी विदेश मंत्री के समझौतावादी रुख में दिखा है। पहली बार चीन कहने के लिए मजबूर हुआ है कि वो ‘एकध्रुवीय एशिया’ नहीं चाहता और इस क्षेत्र में भारत की पारंपरिक भूमिका का सम्मान करता है। घरेलू कारोबार में भारत की बड़ी हिस्सेदारी को देखते हुए चीन यह कहने के लिए भी मजबूर हुआ है कि सीमा विवाद को परे रखकर दोनों देश आपसी व्यापार बढ़ाएं। और सबसे बड़ी बात यह कि चीन ने भारत से बहुपक्षीय मंचों पर सहयोग की गुहार लगाई है। इसका अर्थ यह लगाया जा सकता है कि दुनिया में अपनी बिगड़ी छवि सुधारने में भी चीन भारत से ही उम्मीद लगा रहा है। यह परोक्ष रूप से चीन की स्वीकारोक्ति है कि भारत कहेगा तो दुनिया सुनेगी।

भारत के बढ़ते कद की पुष्टि करतीं मिसालें
विश्व व्यवस्था में भारत के बढ़ते कद की पुष्टि के लिए यूं तो अनेक मिसालें दी जा सकती हैं, लेकिन इस मौके पर हाल के दिनों में दुनिया के अस्तित्व से जुड़े दो अलग और बेहद अहम क्षेत्रों में भारत की पैठ का जिक्र जरूरी है। पहला स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है, जिसमें कोरोना महामारी के दौरान दुनिया के सबसे व्यवस्थित प्रबंधन और सबसे बड़े वैक्सीनेशन अभियान चलाने के साथ ही भारत ने सैकड़ों देशों को जीवनरक्षक वैक्सीन उपलब्ध करवा कर मानवता के दुश्मन बने कोरोना वायरस के खिलाफ एक तरह से विश्व की सामूहिक लड़ाई का नेतृत्व ही किया था। दूसरा मामला आर्थिक क्षेत्र से जुड़ा है, जहां भारत का निर्यात पहली बार 400 अरब डॉलर के पार पहुंचा है, जो कोरोना से उबर रही विश्व अर्थव्यवस्था में लोकल के ग्लोबल होने का सशक्त प्रमाण है। यह इस तथ्य को भी स्थापित करता है कि सामरिक से कूटनीतिक और स्वास्थ्य से आर्थिक क्षेत्र तक एक महाशक्ति के रूप में भारत की क्षमताओं का लगातार विस्तार हो रहा है। उपलब्धियों की यह उड़ान ऐसे कालखंड में दर्ज हो रही है, जब देश आजादी के 75वें वर्ष का अमृत महोत्सव मना रहा है।

बेशक, देश के सामने आंतरिक चुनौतियां भी हैं, और उनका दायरा भी साधारण नहीं है, किंतु उपलब्धियों के इस विस्तार में उनका आकार ऐसा भी नहीं है, जिनसे पार न पाया जा सके। देश हो या दुनिया, उपलब्धियां हों या अमृत मंथन, केंद्र तो भारत ही है।

उपेन्द्र राय


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