हमारा अमृतकाल पड़ोस में आपदाकाल

Last Updated 09 Apr 2022 12:44:28 AM IST

भारत के पड़ोसी देश होने के अलावा पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव जैसे देशों में और क्या समानताएं हैं? एक तो यह कि ये सभी दक्षिण-एशियाई देश हैं, और सभी फिलहाल भारत की तुलना में चीन के ज्यादा करीब दिखते हैं। लेकिन इसके अलावा इनमें एक समानता और भी है। ये सभी देश आज विभिन्न कारणों से गंभीर आंतरिक समस्याओं से जूझ रहे हैं। हालत यह है कि एक तरफ भारत गुलामी से मुक्ति के 75वें वर्ष में प्रवेश कर आजादी के अमृत काल का जश्न मना रहा है, वहीं ये तमाम देश चीन की गुलामी के साए में राजनीतिक अस्थिरता और अनिश्चित भविष्य के केंद्र बन गए हैं।


हमारा अमृतकाल पड़ोस में आपदाकाल

एक तरफ पाकिस्तान में किसी लोकतांत्रिक सरकार के पांच साल पूरे नहीं होने की रवायत कायम है, तो वहीं द्वीपीय देश श्रीलंका को अभूतपूर्व आर्थिक संकट के कारण पांच दिन के लिए ही सही, लेकिन आपातकाल लगाने पर मजबूर होना पड़ा। पाकिस्तान में अविास प्रस्ताव के मसले पर संविधान से खिलवाड़ कर इमरान खान विपक्ष को तो चित करने में सफल हो गए, लेकिन वहां के सुप्रीम कोर्ट के सामने उनकी एक नहीं चली। कोर्ट के फैसले से मजबूर इमरान आज उसी नेशनल असेंबली में वोटिंग का सामना करने जा रहे हैं, जहां ‘असंवैधानिक जुगाड़’ के दम पर वो अविास प्रस्ताव के जाल से बच निकले थे और उसके बाद से ही पाकिस्तानी मीडिया में इस करतूत को मास्टरस्ट्रोक की तरह पेश कर रहे थे।

पाकिस्तान में अब क्या?
अब पाकिस्तान का कल क्या है? अविास प्रस्ताव पर इमरान ने जो राह पकड़ी है, उससे साफ है कि उनके पास सत्ता के सफर को सुरक्षा देने के लिए ‘सिपहसालारों’ की जरूरी संख्या नहीं है। ऐसे में वोटिंग से पहले हो या वोटिंग के बाद, इमरान की हार और उनका इस्तीफा, दोनों तय सूरत लग रही हैं। इमरान जाएंगे तो कोई नई सरकार देश चलाने के लिए आएगी। इमरान की पार्टी पीटीआई के अलावा जो भी दल हैं, उनके पास अकेले दम पर सरकार बनाने लायक नंबर नहीं हैं, तो ऐसे में गठबंधन सरकार बनेगी। इमरान से पहले के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) यानी पीएमएल-एन के पास 84 सांसद हैं, वहीं पूर्व राष्ट्रपति आसिफ जरदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी यानी पीपीपी के 47 सांसद हैं। लेकिन 342 सांसदों वाली पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में इन दोनों के साथ आने से भी काम नहीं चलेगा। यानी कुछ और दलों को साथ आना होगा। इसमें इमरान की पीटीआई से टूटने वाला कोई धड़ा भी हो सकता है। यह सब साथ आ भी गए तो नई सरकार की नींव बहुत ढीली दिख रही है। शरीफ बंधुओं पर जरदारी खुद की हत्या की साजिश रचने के आरोप लगाते रहे हैं, तो वहीं शरीफ बंधु गाहे-बगाहे जरदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की फाइल खोलने की धमकी देते दिखते हैं। यानी पाकिस्तान के लिए आगे एक तरफ कुआं, तो दूसरी तरफ खाई वाले हालात ही हैं।

पाकिस्तान को करीब से जानने वाले इस बार सेना की खामोशी को लेकर कुछ हैरान जरूर हैं। कारण यह है कि इमरान से रिश्तों में आई कड़वाहट के बावजूद पाकिस्तानी सेना ने अब तक तख्तापलट के कोई संकेत नहीं दिए हैं। दरअसल, पाकिस्तान में इस वक्त सेना खुद एक किस्म के दोराहे पर खड़ी है। एक तो यह कि अगर वो इस समय तख्तापलट करती है, तो उसे अमेरिका या पश्चिमी देशों से मान्यता नहीं मिल पाएगी। इसकी भी दो वजहें बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक, अफगानिस्तान का मामला और दूसरा, पाकिस्तान को लेकर पश्चिम की यह समझ कि अब वो पूरी तरह चीन के पाले में जा चुका है। अपनी कुर्सी खतरे में देखकर इमरान ने भी हाल के दिनों में अमेरिका को कोसने में कोई कंजूसी नहीं की है। वहीं सेना की चुप्पी का दूसरा कारण पाकिस्तान की खराब वित्तीय हालत भी है, जो उसे देश की कमान हाथ में लेने से रोक रही है। हालांकि इस दौर में जनरल बाजवा की ओर से हमें अमेरिका से लेकर भारत तक से संबंध सुधारने की बातें सुनाई जरूर दी हैं, लेकिन इस पर भरोसा करने में वक्त लगेगा। शायद वो दिन देखने के लिए जनरल बाजवा भी अपनी कुर्सी पर नहीं रहेंगे। कोई नया जनरल पाकिस्तान में नई सरकार आने के बाद ही यह नई शुरु आत कर पाएगा और मेरा आकलन है कि तब तक पाकिस्तानी सेना ‘वेट एंड वॉच’ की भूमिका में ही रहेगी।

तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद ऐसा नहीं है कि इमरान को पाकिस्तानी अवाम ने पूरी तरह खारिज कर दिया है। इमरान का अपना खुद का बड़ा समर्थक वर्ग है, जो सोशल मीडिया पर काफी मुखर है। पीटीआई को खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में कुछ दिनों पहले हुए स्थानीय सरकार के चुनाव में भी ‘जबरदस्त सफलता’ मिली है। फिर पाकिस्तान इस वक्त करिश्माई लीडरशिप के संकट से भी जूझ रहा है। भुट्टो, जरदारी, शरीफ से वहां की जनता का मोहभंग हो चुका है। ऐसे में इमरान के लिए खुद को पाकिस्तान के सबसे बड़े राष्ट्रवादी नेता और पाकिस्तानी हित के सबसे बड़े संरक्षक के रूप में पेश करना तुलनात्मक रूप से आसान हो गया है। पाकिस्तान के लिए जो मसला ज्यादा कठिन रहने वाला है, वो है आर्थिक बदहाली जिसके चलते आने वाले कई दिनों तक या शायद महीनों तक सियासी जमात को तवज्जो नहीं मिलने जा रही है। पाकिस्तान पर खरबों डॉलर का कर्ज चढ़ा हुआ है, और इसमें 10 फीसद से ज्यादा तो अकेले चीन का कर्ज है। विकासशील बुनियादी ढांचे के नाम पर चीन से ऊंची ब्याज दर पर मिले ऐसे ही कर्ज ने श्रीलंका में आपातकाल के हालात पैदा किए हैं। एशियन डवलपमेंट बैंक ने साल 2019 में ही श्रीलंका को आगाह करना शुरू कर दिया था कि राष्ट्रीय खर्च उसकी राष्ट्रीय आमदनी के ऊपर जा रहा है, जिससे देश एक ‘जुड़वां घाटे वाली’ अर्थव्यवस्था में बदल सकता है। बड़ा दोष राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का है, जो हर मौसम में श्रीलंका के मददगार साबित हुए भारत की अनदेखी कर चीन की ओर झुकते चले गए। अब हालत यह है कि श्रीलंका को इस गर्त से निकालने के नाम पर चीन खामोशी ओढ़े बैठा है। आर्थिक मदद के बजाय वो केवल जुबानी जमाखर्च कर रहा है, और कर्जमाफी के मूड में तो बिल्कुल भी नहीं दिख रहा। मुश्किल वक्त में हमेशा की तरह भारत ही एक बार फिर श्रीलंका के काम आ रहा है। यह बात वहां की अवाम को तो समझ आ रही है, उम्मीद है देर-सबेर श्रीलंका की सत्ता में बैठे लोग भी वहां के आमजन की तरह समझदारी दिखाएंगे।

मालदीव भी शिकार
चीन के रणनीतिक निवेश का शिकार बना हमारा एक और पड़ोसी है मालदीव। गनीमत है कि अभी वहां इन दोनों देशों की तरह हालात नहीं हैं, लेकिन मोदी सरकार के बड़े और महत्त्वपूर्ण निवेश के बावजूद वहां भारत विरोधी अभियान खत्म नहीं हो रहा है। वहां के चीनपरस्त पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन हिंद महासागर में भारत की उपस्थिति को मालदीव के लिए खतरा बताकर पिछले एक साल से ‘इंडिया आउट’ अभियान को हवा दे रहे हैं।  सत्ताधारी पार्टी मालदीव डेमोक्रेटिक पार्टी ने यामीन के इस प्रोपेगैंडा की हवा निकालने के लिए एक बिल लाने की तैयारी की थी, जिसमें मित्र देशों से संबंधों को नुकसान पहुंचाने वाले किसी भी सार्वजनिक प्रदशर्न को अपराध की श्रेणी में रखा गया था। लेकिन अब अगले साल होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए मौजूदा राष्ट्रपति इब्राहिम सालेह और पूर्व में राष्ट्रपति रह चुके स्पीकर मोहम्मद नशीद के बीच ही मतभेद पैदा हो गए हैं, जिसके कारण यह बिल फिलहाल तो ठंडे बस्ते में चला गया है।

विस्तारवाद के जुनून में चीन ने जो आर्थिक चक्रव्यूह रचा है, उसके शिकार केवल पाकिस्तान, श्रीलंका या मालदीव जैसे हमारे पड़ोसी ही नहीं हैं। दुनिया के 40 से ज्यादा देशों की सरकारें अपनी जनता की गरीबी दूर करने की मजबूरी में चीन के ‘परोपकार’ का शिकार हुई हैं। वर्जीनिया की एक रिसर्च लैब ‘एड-डाटा’ की हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि खुद को आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने के लिए चीन अब सहायता देने के बजाय कर्ज देने की रणनीति पर काम कर रहा है। रिपोर्ट में 165 देशों में 843 बिलियन अमेरिकी डॉलर से ज्यादा की 13,000 से अधिक सहायता और ऋण-वित्तपोषित परियोजनाओं का विश्लेषण किया गया है। इससे पता चलता है कि चीन के अकेले बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव की वजह से ही आज कई निम्न और मध्यम अर्थव्यवस्था वाले देशों पर 385 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक का कर्ज चढ़ चुका है। यह कर्ज इन देशों के राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद का 10 फीसद से भी ज्यादा है। ऐसे में चीन के इशारों पर नाचने के अलावा इन देशों के पास ज्यादा विकल्प नहीं बचे हैं।

चीन के प्रति बदलेगा नजरिया
बहरहाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के हालात ने अब बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों को चीनी बुनियादी ढांचे और बेल्ट एंड रोड इनीशिटिव जैसी परियोजनाओं का हिस्सा बनने पर फिर से सोचने को मजबूर किया है। कुछ समय पहले तक चीन से गलबहियां कर रहे नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की हाल की भारत यात्रा को तो ‘सुबह का भूला शाम को घर लौटा’ की नजर से देखा गया है। रही बात पाकिस्तान की, तो वहां का सूरतेहाल कुछ पड़ोसियों के लिए बुरा है, तो कुछ के लिए अच्छा भी है। भारत के लिहाज से कश्मीर पर सतर्कता रखते हुए आने वाला समय यथास्थिति वाला हो सकता है। पाकिस्तान की नई सरकार और फौज आंतरिक झंझावात के बीच भारत को भड़काने का जोखिम नहीं उठाएगी। मेरा आकलन है कि पिछले महीने पाकिस्तान में भारतीय मिसाइल गिरने के वक्त दिखाया गया संयम और समझदारी अभी आगे और देखने को मिलेगी। सबसे फायदे में चीन ही रहेगा क्योंकि अगले कुछ दिन पाकिस्तान में उसका भारी-भरकम निवेश भले ही खतरे में रहे, लेकिन चीन को पता है कि जो भी अगली सरकार आएगी वो आर्थिक मदद के लिए उसके आसरे ही होगी। पाकिस्तान, और साथ में श्रीलंका को भी जोड़ लें, तो भारत समेत तमाम पड़ोसियों के लिए शायद सबसे अच्छी स्थिति तो यही होगी कि दोनों देशों में हालात जल्द-से-जल्द सामान्य हों क्योंकि जिस तरह दोस्त की तुलना में पड़ोसी बदलना मुश्किल है, वैसे ही पड़ोसी की परेशानियों से लंबे समय तक अप्रभावित रहना भी संभव नहीं होता।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment