हिंदी के हम ही कसूरवार

Last Updated 11 Sep 2021 06:29:39 AM IST

हिंदी दिवस फिर मुहाने पर है और एक बार फिर दशा और दिशा के प्रश्नों के साथ हिंदी राष्ट्रव्यापी चर्चा की सालाना परंपरा के केन्द्र में है। 14 सितम्बर, 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था। तभी से हम साल-दर-साल 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाते आ रहे हैं।


हिंदी के हम ही कसूरवार

एक परिपाटी की तरह देश में हिंदी बोलने-समझने वालों की बढ़ती तादाद का हवाला भी देते रहते हैं। अब यह संख्या भी 75-80 करोड़ के आस-पास है। देश के बाहर भी हिंदी जानने-समझने वालों की संख्या करोड़ों में पहुंच गई है। पिछले 46 साल से हम 10 जनवरी को वि हिंदी दिवस भी मनाने लगे हैं। लेकिन हिंदी के सम्मान में इतना कुछ करने के बावजूद क्या हम हिंदी को उसका यथोचित सम्मान भी दिला पा रहे हैं?

सालाना प्रक्रिया बनता हिंदी दिवस
यह भी विडंबना है कि हिंदी दिवस के सालाना आयोजन की तरह हमारी यह चिंता भी अब सालाना प्रक्रिया बनती जा रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि राज भाषा हिंदी का विस्तार हुआ है और स्वीकार्यता बढ़ी है। नई शिक्षा नीति में भी पठन-पाठन मातृ भाषा में हो इस पर जोर है, खासकर तकनीकी शिक्षा के संदर्भ में। इसके बावजूद प्रगति करती राज भाषा 72 साल पहले मिले इस ओहदे को राष्ट्र भाषा में क्यों परिवर्तित नहीं कर पाई, इस पर चिंतन की जरूरत है।

इसकी शुरुआत इस स्वीकारोक्ति से हो सकती है कि हिंदी को हम हिंदी वालों ने ही निराश किया है। भाषा कोई भी हो, उसे कितना आदर और विस्तार मिलेगा, यह उसे व्यवहार में लाने वालों का बर्ताव ही तय करता है। दुनिया के तमाम आर्थिक रूप से संपन्न देश अपनी मातृ भाषा को ही प्राथमिकता देते हैं, लेकिन हम अभी भी अंग्रेजी की बैसाखी को थामे हुए हैं। इस मानसिकता को बदलने की लंबे समय से चर्चा हो रही है, लेकिन यह हमारे व्यवहार में नहीं आ पा रही है। देश का एक बड़ा वर्ग सोचता-समझता तो हिंदी में है, लेकिन हिंदी में ही उसकी अभिव्यक्ति करने पर खुद को असहज महसूस करता है। जिनके पास साधन हैं, वो अपने बच्चों का अंग्रेजी स्कूल में दाखिला करवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं, लेकिन हिंदी भाषा वाले सरकारी स्कूल में सीट खाली होने पर भी अपने बच्चे को वहां भेजना नहीं चाहते।

बाजार की भाषा बनने का दावा
 जिस भाषा से हम अपने घरों और आने वाली पीढ़ियों को दूर कर रहे हैं, आज उसका बाजार की भाषा बनने का दावा किया जा रहा है। बेशक, पिछले कुछ समय में हिंदी ने वैिक स्तर पर अपनी पहचान बढ़ाई है। लेकिन यह भी हकीकत है कि इसमें भाषा की गुणवत्ता के साथ-साथ बाजार की जरूरत का भी बड़ा हाथ है। बहुउद्देशीय कंपनियों के लिए भारत एक बहुत बड़ा बाजार है जहां अपना उत्पाद खपाने के लिए उन्होंने हिंदी को अपनाया है। विदेशी कंपनियां यह प्रयोग चीन की मंदारिन भाषा के साथ लंबे अरसे से सफलतापूर्वक कर रही हैं। लेकिन ऐसे में हिंदी को बाजार की भाषा कहने से ज्यादा सही यह होगा कि उसे व्यापार की भाषा कहा जाए।

लेकिन इससे हिंदी का क्या भला हो रहा है? खासकर सरकारी तंत्र में इसकी स्थिति को बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता। सरकार ने भले ही शासकीय विभागों में हिंदी संस्कृति को बढ़ावा देने की पहल की हो, इससे बदलाव भी आया है, लेकिन शासन-प्रशासन की मुख्य भाषा अभी भी अंग्रेजी ही बनी हुई है। ठीक वैसे ही जैसे हिंदी आज भी देश की उच्च अदालतों में जिरह की भाषा बनने की बाट जोह रही है। सरकारी कार्यालयों में जहां हिंदी का उपयोग हो भी रहा है, वहां इसकी क्लिष्टता ही इसकी दुश्मन बन गई है। संस्कृत से जुड़ी यह सरकारी मशीनी भाषा पचास के दशक में गठित वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग की देन है और हिंदी के जानकारों की भी समझ से परे है। आज हिंदी को बोलचाल और कामकाज की भाषा बनाने की जरूरत है, जो सरकारी दस्तावेजों से कठिन शब्दों को हटाए बिना तो संभव नहीं दिखता।

शुद्धतावादी नजरिया ठीक नहीं
यह भी हैरानी का विषय है कि हम इसके लिए तैयार भी नहीं दिखते। शुद्धतावादी नजरिए के समर्थक अलग-अलग जगह से आए नए-नए शब्दों के लिए हिंदी के दरवाजे बंद रखने पर आमादा हैं। इसके लिए दलील भाषा की पवित्रता को बनाए रखने की दी जाती है, जबकि ऐसे कई दृष्टांत हैं कि जिस भाषा ने इसे लेकर हिचक दिखाई, उसका जिंदा रहना मुश्किल हो गया। देवों की भाषा संस्कृत इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। बोलचाल के जो शब्द किसी भाषा को बेहतर बनाते हैं, उन्हें शुद्धता के नाम पर भाषा से दूर रखना भाषा का ही नुकसान करना है।

सवाल की वजह है हिचक
यही हिचक इस सवाल की वजह भी बनती है कि क्या व्यावहारिक तौर पर तकनीकी शिक्षा की पढ़ाई हिंदी में संभव है? नई शिक्षा नीति में इस ओर कदम बढ़ाकर सरकार ने साहसिक पहल की है। हालांकि तीन भाषा वाले फॉर्मूले में कम-से-कम दो भाषा भारतीय और इसके लिए हिंदी और संस्कृत को तय किया जाना एक बार फिर क्षेत्रीय भाषा और हिंदी को आमने-सामने ला सकता है, क्योंकि तीसरी भाषा के विकल्प के तौर पर क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी में से किसी एक का चुनाव करना होगा। ऐसे हालात तब भी बने थे जब दौलत सिंह कोठारी के नेतृत्व में देश के पहले शिक्षा आयोग ने त्रिभाषा फॉर्मूले की पेशकश की थी। इन तीन भाषाओं में एक मातृ भाषा, अंग्रेजी और दूसरे राज्य की एक भाषा पढ़ने-पढ़ाने का सुझाव था, लेकिन हिंदीभाषी राज्यों ने दूसरे राज्य की भाषा की जगह संस्कृत को वरीयता दी। यह हिंदी और गैर-हिंदी राज्यों के झगड़े की वजह हुआ जो आज तक जारी है। देश के कई हिंदी समर्थक यह मानते हैं कि उस ‘गलती’ को सुधारना हिंदी के लिए हितकारी हो सकता है। इसके लिए करना यह होगा कि हिंदी राज्य संस्कृत की जगह दूसरे राज्यों की एक भाषा पढ़ाना शुरू कर दें, तभी इन राज्यों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कोई ठोस पहल संभव हो पाएगी। भरोसा बहाली की दिशा में हिंदी दिवस की जगह भारतीय भाषा दिवस की शुरुआत भी सार्थक शुरु आत हो सकती है।

लेकिन ये सभी उपाय प्रतीकात्मक हैं। असल में हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा तभी दिलाया जा सकेगा, जब इसे कामकाज और रोजगार से जोड़ा जाएगा। लोगों की रोजी-रोटी का माध्यम बने बिना हिंदी का कल्याण दूर की कौड़ी दिखाई देता है। साथ ही शुद्धता के पैरोकारों को भी यह समझना होगा कि भाषा समय के साथ बदलाव के लिए जितनी उदार होगी, वो उतनी ही लोकप्रिय होती जाएगी। हिंदी के प्रति हमें इसी कर्त्तव्यबोध के साथ आगे बढ़ना होगा और बार-बार स्मरण करनी होंगी ये पंक्तियां जो हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखी हैं, निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न रिय के सूल।
 

उपेन्द्र राय


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