जुबानी जमा-खर्च से नहीं सुलझेगा अफगान संकट

Last Updated 12 Sep 2021 12:02:32 AM IST

अंग्रेजी में एक कहावत है कि you have watch, we have time (यू हैव वॉच, वी हैव टाइम)। मतलब आपके पास घड़ी है तो हमारे पास वक्त है। करीब दो दशक तक तालिबान अमेरिका के लिए यही कहता रहा।


जुबानी जमा-खर्च से नहीं सुलझेगा अफगान संकट

अमेरिका की वापसी के बाद अफगानिस्तान में वक्त का पहिया फिर से उसी मुकाम पर आ चुका है। जोर-जबर्दस्ती से ही सही, लेकिन काबुल में तालिबान की सरकार अस्तित्व में आ चुकी है। इसीलिए अफगानिस्तान में नई सरकार की मान्यता को लेकर दुनिया भर में एक नई चिंता देखी जा रही है। कुछ देश खुलकर तालिबान के समर्थन में आ रहे हैं, तो कई ऐसे भी हैं जो तख्तापलट के बाद के हालात में लिए गए अपने स्टैंड से पलट रहे हैं। अफगानिस्तान के पड़ोसी और वहां पाकिस्तान-चीन के बढ़ते दखल के बीच यह बदलता घटनाक्रम भारत के नजरिए से काफी अहम है।

इस दिशा में इसी सप्ताह हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में सदस्य देशों की अफगानिस्तान को लेकर ‘नई दिल्ली घोषणापत्र’ पर सहमति काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। सदस्य देश - जिनमें भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के साथ-साथ रूस और चीन भी शामिल हैं ने अफगानिस्तान से हिंसा से परहेज करने और शांतिपूर्ण तरीके से स्थिति को सुलझाने की अपील की। बेशक इसमें सीधे-सीधे तालिबान का जिक्र न हो, लेकिन अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के कारण यह आह्वान जाहिर तौर पर तालिबान से ही है। ब्रिक्स का सदस्य देश होने के नाते चीन भले ही तालिबान को दी गई इस सामूहिक नसीहत का हिस्सा हो, लेकिन उसने अफगानिस्तान की मदद के नाम पर तालिबान के लिए अपना खजाना खोल दिया है। इसलिए ये नहीं कहा जा सकता कि चीन तालिबान को समर्थन के अपने रु ख से पीछे हट रहा है, लेकिन रूस के स्टैंड ने दुनिया के साथ-साथ भारत को भी काफी राहत पहुंचाई है। रूस भी अगर चीन के रास्ते पर चलता, तो तालिबान को संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच से स्वीकार्यता मिलने का खतरा भी बढ़ जाता, लेकिन ब्रिक्स सम्मेलन में राष्ट्रपति पुतिन ने बिना किसी लाग-लपेट के अफगानिस्तान को अपने पड़ोसी देशों के लिए आतंकवाद और मादक पदाथरे की तस्करी के स्रोत के खतरे से बचने की चेतावनी देकर फिलहाल इस खतरे को टाल दिया है।

जब अफगानिस्तान में सत्ता पलट रही थी, तो रूस भी चीन, पाकिस्तान और ईरान की तरह तालिबान से नजदीकी बढ़ाता दिख रहा था। हाल के दिनों में अमेरिका से भारत की गहराती दोस्ती के बीच रूस के इस रुख को भारत के लिए चिंताजनक बताया जा रहा था। ऐसा माना जा रहा था कि चीन और पाकिस्तान के बढ़ते दखल के बीच तालिबान से बातचीत का चैनल खोलने के लिए रूस ही भारत का अकेला सहारा बन सकता था और उसके अमेरिका विरोधी खेमे में जाने से भारत के लिए अपने पड़ोस में मची उथल-पुथल में अलग-थलग होने का खतरा बढ़ जाएगा। बहरहाल अब ये आशंका निर्मूल साबित होती दिख रही है और तालिबान को लेकर भारत की ‘वेट एंड वॉच पॉलिसी’ पर पड़ रहा दबाव भी काफी हद तक कम हुआ है। केवल रूस ही नहीं, उसके प्रभाव वाले ताजिकिस्तान जैसे देश भी तालिबान को लेकर सहज नहीं हैं। ताजिकिस्तान कुछ दिन पहले ही तालिबान सरकार को मान्यता देने की पाकिस्तान की अपील को ठुकरा चुका है। रूस को भरोसे में लिये बगैर ताजिकिस्तान ने इतना बड़ा फैसला लिया होगा, यह संभव नहीं दिखता। ऐसे में यह मानने की पर्याप्त वजह है कि भले ही रूस तालिबान की नई सरकार की ताजपोशी का न्योता पाने वाले चुनिंदा देशों में शामिल हो, मगर अंदरूनी तौर पर वह भी तालिबानी सत्ता के खतरों को लेकर सजग है और भारत की ही तरह ‘वेट एंड वॉच पॉलिसी’ के तहत इंटेलिजेंस और कूटनीतिक स्तर पर काम कर रहा है। इसे देखकर लगता है कि अफगान संकट को लेकर पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रपति पुतिन से और रूस के एनएसए की हमारे एनएसए अजित डोभाल से हुई मुलाकात अपना असर दिखा रही है।

भारत और रूस की साझा चिंताएं तालिबान में नई ‘आतंकी’ सरकार के गठन के बाद अब समूची दुनिया के लिए चिंता का सबब बन गई हैं। इस सरकार में प्रधानमंत्री बना मुल्ला हसन अखुंद संयुक्त राष्ट्र की सूची में शामिल अंतरराष्ट्रीय आतंकी है। उप प्रधानमंत्री बना मुल्ला अब्दुल गनी बरादर तालिबान के संस्थापकों में से एक है और कई साल पाकिस्तान की जेल में बिता चुका है। तालिबान की इस नई अंतरिम सरकार में सिराजुद्दीन हक्कानी को गृह मंत्री बनाया गया है, जो हक्कानी नेटवर्क का सरगना है। हक्कानी 2008 में काबुल में भारतीय दूतावास पर हमले में शामिल था। अमेरिका ने भी उस पर 50 लाख डॉलर का इनाम रखा हुआ है। तालिबान को गढ़ने वाले मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला याकूब इस सरकार में रक्षा मंत्री है, वहीं अमेरिका की जेल में सजा काट चुका अंतरराष्ट्रीय आतंकी खैरु ल्लाह खैरख्वाह को सूचना मंत्री बनाया गया है।

काबुल पर कब्जे के बाद तालिबान दावा कर रहा था कि इस बार वो महिलाओं को भी अधिकार देगा, लेकिन बंदूक के दम पर बनाई गई आतंकियों की इस सरकार में एक भी महिला मंत्री नहीं है। काबुल पर कब्जे के बाद पिछले 20 दिनों में अफगानिस्तान में ऐसा काफी कुछ हुआ है, जिसने तालिबान की कथनी और करनी के फर्क की पोल खोल कर उसका असली चेहरा दुनिया के सामने ला दिया है। अफगानिस्तान में महिलाएं फिर से बुकरे में कैद हो गई हैं, चेहरा और शरीर के अंग दिखाने वाले खेल महिलाओं के लिए बैन कर दिए गए हैं, टीवी चैनलों से महिला एंकर हटा दी गई हैं, कॉलेज की कक्षाओं में लड़के-लड़िकयों के बीच पर्दे डाल गए हैं, सड़कों पर प्रदर्शन करने वाली महिलाओं पर पूरी बेहयाई से कोड़े बरसाए जा रहे हैं, हजारा घाटी की महिलाओं की तालिबानी लड़ाकों से जबरिया शादियां करवाई जा रही हैं, विरोधियों को सजा के तौर पर सार्वजनिक स्थानों पर गोलियों से भूना जा रहा है, और कइयों को बेरहमी से फांसी पर लटकाया जा रहा है। जिन पत्रकारों ने इस वहशीपन को दुनिया के सामने लाने की हिम्मत दिखाई, उन्हें भी तालिबान कोड़े बरसाकर यातनाएं दे रहे हैं। भारतीय फोटो जर्नलिस्ट दानिश सिद्दीकी को तो तालिबान का सच सामने लाने की कीमत पहले ही अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

साफ है कि इस्लाम और शरिया के नाम पर सरकार चलाने का दम भर रहे तालिबान जरा भी नहीं बदले हैं और बीस साल पहले के खौफ और बेरहमी के उसी पुराने मॉडल पर आगे बढ़ रहे हैं। खतरा इस बार ज्यादा है क्योंकि इस बार पूरा अफगानिस्तान तालिबान के कब्जे में आ चुका है यानी फौरी तौर पर देश के अंदर नई सरकार को अपनी ‘सनक’ कायम करने से रोकने वाली कोई ताकत नहीं बची है। अफगान की अवाम अब बाहरी दुनिया के ही भरोसे है, जो फिलहाल खुद को ही तालिबान से बचाने की जुगत में जुटी है और जुबानी खर्च से ज्यादा कुछ करती दिख नहीं रही है। 9/11 की बीसवीं बरसी पर भी न दुनिया बदली है, और ना ही तालिबान।

उपेन्द्र राय


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