सांप भी मर जाए लाठी भी न टूटे

Last Updated 10 Jul 2021 09:26:20 AM IST

कल विश्व जनसंख्या दिवस है और पिछले कई वर्षो की तरह इस बार भी वही चिर-परिचित आवाजें फिर सुनाई दे रही हैं कि अगर हम आज नहीं संभले तो हमारा कल बड़ा भयावह हो सकता है।


सांप भी मर जाए लाठी भी न टूटे

साल-दर-साल हम इस भयावहता की ओर कदम बढ़ाए जा रहे हैं, और खतरे की आहट को कुछ सार्थक और कुछ निर्थक बहस के शोर में दबाते चले जा रहे हैं। कोरोना काल ने इस बहस को नया आयाम दे दिया है। महात्मा गांधी ने कहा था कि पृथ्वी सब मनुष्यों की जरूरत पूरा कर सकती है, लेकिन लालच को पूरा नहीं कर सकती। कोरोना के दौर ने हमें यह सिखाया है कि हम उस आफत की गोद में जाकर बैठ चुके हैं, जहां पृथ्वी अब हमारे लालच ही नहीं, हमारी जरूरत का बोझ उठाने में भी कराहने लगी है। अस्पतालों में बिस्तर, ऑक्सीजन, दवाइयां-इंजेक्शन, मेडिकल स्टाफ यानी जान बचाने के लिए जरूरत का हर सामान मरीजों की बेलगाम संख्या के सामने अपर्याप्त साबित हुए। यह केवल कोरोना की भीषणता का प्रकटीकरण नहीं है, उपलब्ध संसाधनों पर बेतहाशा बढ़ रही जनसंख्या के दबाव का नतीजा भी है।

हम होंगे सबसे बड़ी आबादी वाला देश
‘द 2017 रिवीजन’ रिपोर्ट में अनुमान जताया गया था कि साल 2025 तक हम दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश हो जाएंगे। हमारी जनसंख्या दुनिया की कुल आबादी का 20 फीसद हो जाएगी, लेकिन उसकी जरूरत पूरी करने के लिए हमारे पास कृषि योग्य भूमि दुनिया की लगभग दो प्रतिशत और पीने योग्य पानी केवल चार प्रतिशत होगा। गौर करने वाली बात यह है कि यह जानकारी भी किसी रहस्य का प्रकटीकरण नहीं है, बल्कि दीवार पर लिखी हुई ऐसी इबारत है जिसे समझने के लिए किसी भाषा का जानकार होना भी जरूरी नहीं है। इसके बावजूद इस पर चर्चा करना हमारे देश में एक संवेदनशील मसला हो जाता है। आजादी के बाद से जनसंख्या नियंत्रण को लेकर विभिन्न दलों के सांसद 35 प्राइवेट बिल पेश कर चुके हैं। 2018 में लगभग 125 सांसदों ने राष्ट्रपति से भारत में दो बच्चों की नीति लागू करने का आग्रह किया था। हाल ही में जब पहले असम और अब उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नीति को लेकर बात हुई, तो कई कान खड़े हो गए। राजनीतिक से लेकर सामाजिक स्तर तक समर्थन और विरोध के स्वर बुलंद हुए। संयोग से दोनों प्रदेशों का सामाजिक समीकरण भी काफी मिलता-जुलता है, जहां मुस्लिम आबादी देश के बड़े हिस्से की तरह अल्पसंख्यक नहीं है। इस वर्ग को कई लोग जनसंख्या के राष्ट्रीय ग्राफ में बढ़ोतरी के लिए कसूरवार ठहराते हैं।

इस दावे की तथ्यों से पड़ताल करें, तो इसमें दोनों ओर बहस की गुंजाइश दिखती है। भारत में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर हिंदुओं की तुलना में करीब आठ फीसद अधिक है, लेकिन यह भी सच है कि पिछले एक दशक में मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर हिंदू आबादी की तुलना में ज्यादा कम हुई है। साल 2001 में हिंदू जनसंख्या की वृद्धि दर 19.92 फीसद थी, जो 2011 में कम होकर 16.76 फीसद हो गई यानी करीब तीन फीसद से ज्यादा की गिरावट। लेकिन मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर तो करीब पांच फीसद तक गिरी साल 2001 के 29.5 फीसद से साल 2011 में 24.6 फीसद। इस सबके बावजूद इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुस्लिम धर्म में जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को लेकर बड़े पैमाने पर हिचकिचाहट दिखाई देती है और वो इन उपायों के विरोध में उतर आते हैं, लेकिन क्या केवल एक तबके के सामाजिक विरोध के कारण जनसंख्या नीति पर चर्चा से परहेज देशहित में होगा? क्या इसके बजाय विरोध करने वाले वर्ग को विश्वास में लेकर इस समस्या का सामना करने में उनका सहयोग नहीं लिया जाना चाहिए?

नहीं मिले उत्साहजनक परिणाम
मुश्किल यह है कि इस दिशा में हुई पिछली कवायदों के परिणाम कोई खास उत्साहजनक नहीं रहे हैं। इसकी वजह सरकारी खानापूर्ति भी हो सकती है कि इस दिशा में जागरूकता अपेक्षित स्तर को नहीं छू पाई है। तो क्या जो अपेक्षित है, उसे किसी कानून की मदद से अनिवार्य बनाया जाना उचित होगा? अगर मान-मनौव्वल या अनुनय-विनय काम नहीं आ रहा, तो कानून का डंडा चलाकर देखने में क्या हर्ज है? दरअसल, दिक्कत इस राह पर भी है। महाराष्ट्र, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश जैसे देश के 11 राज्यों में टू चाइल्ड पॉलिसी लागू है, जहां दो से अधिक बच्चे होने पर उस नागरिक को सरकारी नौकरी से लेकर अलग-अलग स्तर पर चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य माना गया है लेकिन इन पाबंदियों के बावजूद इन राज्यों में जनसंख्या का विस्तार नियंत्रण में नहीं आ पाया है।  

कानून के समर्थक दलील देते हैं कि इस मामले में कठोरता और केन्द्रीय नियमन के अभाव की वजह से राज्यों के प्रयास अब तक एकाकी साबित हुए हैं। लेकिन भारत की भौगोलिक विशालता और विविधता को देखते हुए कोई केन्द्रीय पहल कारगर होगी, इस पर संदेह होता है। चुनावी जीत की मजबूरियां राज्यों में अपने खेल दिखाती हैं। असम में जिस जनसंख्या नियंत्रण कानून को हरी झंडी दिखाई जाने वाली है, वो चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी समुदाय पर लागू नहीं होगा। उधर मिजोरम में कम जनसंख्या घनत्व के बीच एक मंत्री अपनी विधानसभा में सबसे ज्यादा बच्चों वाले परिवार को एक लाख का इनाम देने की घोषणा कर चुके हैं। थोड़ी देर के लिए इसके राजनीतिक निहितार्थ को नजरंदाज कर दें, तो यह मसला काफी कुछ चीन जैसा दिखता है, जो इस मामले पर कड़ाई के बाद ढील देने के लिए मजबूर हुआ है। सालों-साल वन चाइल्ड पॉलिसी के पैरोकार रहे चीन ने देश में उभरे असंतुलन के बाद साल 2016 में टू-चाइल्ड पॉलिसी लागू की और जब उससे भी बात नहीं बनी, तो चीन अब अपने नागरिकों से तीन बच्चे पैदा करने की बात कर रहा है। शायद इन्हीं सब अनुभवों से सबक लेकर केन्द्र सरकार भी पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में स्पष्ट कर चुकी है कि जनसंख्या पर राष्ट्रीय कानून लाने की फिलहाल उसकी कोई योजना नहीं है। सरकार का कहना है कि वो देश के नागरिकों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने की इमरजेंसी जैसी सोच के खिलाफ है।

केन्द्र का व्यावहारिक कदम
दरअसल, भारत के नजरिये से देखें, तो केन्द्र का यह कदम व्यावहारिक भी लगता है। हमारे देश में गरीबी और अशिक्षा के साथ ही जातीय राजनीति की अपनी चुनौतियां हैं। बेशक, हाल में कुछ बदलाव दिखा हो, लेकिन अभी भी आम भारतीय परिवारों में संतान के तौर पर लड़के और लड़की में फर्क होता है। विशेषज्ञों को अंदेशा है कि जनसंख्या कानून लाए जाने पर लड़कियों को गर्भ में मारे जाने का खतरा और बढ़ सकता है। यह अलग तरीके के जनसांख्यिकीय विकार की शुरु आत कर सकता है। ऐसे हालात में दो स्तर पर प्रयास जरूरी हो जाते हैं। कानून की प्रासंगिकता और उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके साथ ही जागरूकता बढ़ाए जाने और इस विषय पर लोगों को शिक्षित किए जाने की भी जरूरत है यानी सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। इस विषय पर सख्ती से परहेज का केन्द्र सरकार का फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन देशहित में जो लोग इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए स्वप्रेरणा से योगदान दे रहे हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने की संभावना भी जरूर तलाशी जानी चाहिए।
 

उपेन्द्र राय


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