सम्मान की चाह, समाधान की राह

Last Updated 27 Dec 2020 12:05:55 AM IST

दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले किसानों को अब एक महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, हालांकि हालात वही हैं जो पहले दिन थे।


सम्मान की चाह, समाधान की राह

किसान तीनों कानूनों को वापस लेने की अपनी मांग पर डटे हुए हैं, जबकि सरकार संशोधन का भरोसा तो दे रही है, लेकिन कानून वापस लेने को तैयार नहीं। देश की चिंता अब एक और वजह से बढ़नी चाहिए। सिंघु बॉर्डर पर जहां किसानों का पिछले महीने से जमावड़ा लगा है, वहां तो किसान सब्र दिखाते हुए शांति से बैठे हैं, लेकिन आंदोलन से जुड़ने के लिए आ रहे किसानों की देश के अलग-अलग हिस्सों में पुलिस से हो रही झड़प परेशान करने वाला विषय है।

हालात काबू में रहें, इसके लिए सरकार को क्या करना चाहिए? इसका सीधा-सा जवाब तो यही है कि आंदोलन खत्म किया जाए, लेकिन उसके लिए जरूरी है कि सरकार और किसानों के बीच बातचीत का कोई सिलसिला बने जो कि अब तक नहीं हो पाया है। वैसे शुक्रवार को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर किसानों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस दिशा में बड़ी पहल की है। देश के किसानों से बातचीत करते हुए प्रधानमंत्री ने जिस तरह नये कानूनों से जुड़ी तमाम आशंकाओं को दूर किया है, उससे गतिरोध के टूटने की उम्मीद जगी है।

इस दौरान प्रधानमंत्री ने पीएम-किसान योजना के तहत नौ करोड़ किसानों के खातों में 18 हजार करोड़ रु पये की किसान सम्मान निधि हस्तांतरित की। यूं तो सरकार किसानों के खाते में नियमित रूप से दो-दो हजार रु पये की तीन किस्तों में सालाना छह हजार रु पये हस्तांतरण करती है, लेकिन बीच आंदोलन में इस राशि के हस्तांतरण का सरकार के लिए अलग ही महत्त्व है, क्योंकि इससे खुद को किसान हितैषी बताने के सरकार के दावे को बड़ा मजबूत आधार मिलता है।

पिछले छह साल में मोदी सरकार ने किसानों के हित में ऐसे कई कदम उठाए हैं। खेती को लाभकारी बनाने के लिए सम्मान निधि के साथ ही फसल बीमा, सॉयल हेल्थ कार्ड, नीम कोटिंग यूरिया जैसी तमाम योजनाएं शुरू की गई हैं। 2013-14 में यूपीए सरकार के दौरान खेती-किसानी का जो बजट 21 हजार 900 करोड़ रुपये था, वो अब बढ़कर एक लाख 34 हजार 399 करोड़ रुपये हो चुका है। एमएसपी का दायरा बढ़ाकर गेहूं-धान के साथ अब दलहन-तिलहन को भी इसमें शामिल किया गया है। गोदामों और कोल्ड स्टोरेज की चेन को भी गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए एक लाख करोड़ रुपये का फंड बनाया गया है।  

किसान यह जानता-समझता है कि सरकार यह सारे जतन इसलिए कर रही है क्योंकि जब देश आजादी के 75वें वर्ष का जश्न मनाए, तो अपने पसीने से अनाज के गोदाम भरने वाले अन्नदाता की झोली खाली न रह जाए। साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करना सरकार का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य है, जहां तक पहुंचने के लिए वो हर मौके पर किसानों के साथ मजबूती से खड़ी दिखी है। फिर नये कानूनों को लेकर दिक्कत कहां आ गई? भले ही आंदोलन कर रहे किसान पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते हों, लेकिन कृषि प्रधान देश में किसानों की चिंताएं केवल इसलिए सरकार की प्राथमिकता से बाहर नहीं हो सकती कि वो केवल दो-चार राज्यों तक ही सीमित है। यह मान भी लिया जाए कि विपक्ष किसानों को बरगलाने में कामयाब हो गया, तो भी क्या यह पड़ताल का विषय नहीं होना चाहिए कि किसानों को भरोसे में लेने में सरकार ने कहां कमी कर दी?

शायद यही आंदोलन के इतना लंबा खिंच जाने की जड़ भी है। एमएसपी, एपीएमसी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंंग जैसे विषय पर सरकार नई सोच के साथ आगे बढ़ना चाहती है, लेकिन किसान इन बदलावों से अपने भविष्य को लेकर सशंकित हैं। मामला इसलिए फंसा हुआ है क्योंकि छह दौर की बातचीत के बाद भी किसानों की यह शंका दूर नहीं हो पाई है। उस पर किसान यह भी सोच रहे हैं कि जब उन्होंने इन सुधारों की मांग ही नहीं की, तो सरकार इसे लागू करने में इतना उतावलापन क्यों दिखा रही है?

जाहिर तौर पर समस्या सुलझाने की जिम्मेदारी किसानों की नहीं, सरकार की है, लेकिन उसके पास रास्ता क्या है? सरकार चाहे तो दो-तीन विकल्पों में से किसी एक पर आगे बढ़ सकती है। किसानों की सबसे बड़ी आपत्ति एमएसपी को लेकर है, इसलिए सरकार चाहे तो इस पर एक नया कानून लेकर आ सकती है, जिसमें फिलहाल एमएसपी वाली मौजूदा फसल की खरीद पर गारंटी देने के साथ एक तय समय सीमा में बाकी फसल को भी इसमें शामिल करने का प्रावधान रखा जा सकता है। इससे सरकार फौरी तौर पर फसल खरीद से होने वाले वित्तीय बोझ से बच सकती है। हालांकि इसके बावजूद सरकार को सम्मान निधि जैसी योजना को चलाते रहना होगा, क्योंकि एमएसपी पर अलग से कानून आने के बाद भी करीब 70 फीसद लघु एवं सीमांत किसानों को इसका फायदा नहीं मिल पाएगा। फिर भी एमएसपी पर नया कानून बनने से किसान शायद तीन कानूनों को वापस लेने की अपनी मांग से पीछे हट सकते हैं।

दूसरे विकल्प के तौर पर सरकार नये कानूनों को अमल में लाने का अधिकार राज्यों पर छोड़ सकती है। इससे दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। नये कानून अगर खेती के लिए फायदेमंद साबित होते हैं, तो जो किसान आज इसका विरोध कर रहे हैं, वो भी इसे आजमाने के लिए प्रेरित हो सकते हैं। कानूनों को कुछ समय के लिए होल्ड पर रखने का एक तीसरा विकल्प सुप्रीम कोर्ट ने भी सुझाया है। ऐसा करने पर सरकार को किसानों की शंका दूर करने के लिए वक्त मिल जाएगा। कुछ समय बाद सरकार इन कानूनों को ऐसे संशोधनों के साथ प्रस्तुत कर सकती है जिसमें किसानों की आम राय भी शामिल हो और जो सभी को स्वीकार्य हो।

यकीनन सरकार और भी बेहतर विकल्पों पर काम कर रही होगी, लेकिन फिलहाल तो राहत की बात यह है कि गतिरोध तोड़ने के लिए एक बार फिर नये सिरे से संभावनाएं तलाशी जा रही हैं। सम्मान निधि के हस्तांतरण से एक दिन पहले ही सरकार ने किसानों को पत्र लिखकर उनसे अगले दौर की बातचीत का समय और स्थान तय करने को कहा है। संयोग से जिस दिन किसानों को सम्मान निधि दी गई, उसे देश ‘गुड गवन्रेस डे’ यानी सुशासन दिवस के रूप में भी मनाता है। अच्छा तो यही होगा कि ऐसे महत्वपूर्ण मौके पर प्रधानमंत्री की ओर से की गई पहल से वो रास्ता भी निकल आए, जिससे खेती में दोबारा सुशासन का माहौल लौट आए।

उपेन्द्र राय


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