संवाद से सुलझेगा विवाद

Last Updated 20 Dec 2020 12:10:20 AM IST

कृषि कानूनों को लेकर किसान संगठनों और सरकार के बीच गतिरोध लगातार जारी है।


संवाद से सुलझेगा विवाद

किसान संगठन कृषि से जुड़े तीनों नये कानूनों को वापस लेने की मांग पर अड़े हुए हैं, जबकि सरकार भी इन्हें वापस लेने के बजाय संशोधन करने के अपने रुख पर कायम है। मुश्किल यह है कि इससे कोई रास्ता निकल नहीं रहा है और आंदोलन अब अपने 25वें दिन में प्रवेश कर गया है। हर गुजरते दिन के साथ यह सवाल बड़ा होता जा रहा है कि आखिर सरकार और किसानों के बीच सुलह का रास्ता निकलेगा कैसे?

गृहमंत्री अमित शाह से लेकर कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर और सरकार के कई मंत्री किसानों से आंदोलन की राह छोड़कर बातचीत से मसला सुलझाने की अपील कर चुके हैं। सीधे-सीधे न सही, मगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी कई सार्वजनिक मंचों से किसानों को मनाने का उपक्रम कर चुके हैं, लेकिन किसान टस-से-मस होने को तैयार नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में दखल देने से इनकार करते हुए सरकार और किसानों को बातचीत से हल निकालने का मशविरा दिया है, लेकिन हल निकलेगा तब जब दोनों पक्ष अपने रुख से थोड़ा पीछे हटें और बीच का रास्ता निकालने की बुनियाद बनाएं। यकीनन इसकी जिम्मेदारी सरकार की है, लेकिन किसानों को भी समझना होगा कि ‘सारी मांगें मनवाएंगे और ऐसा न होने तक डटे रहेंगे’ वाला फॉर्मूला दुनिया के किसी सफल आंदोलन की बुनियाद नहीं बना है। वैसे बीच का रास्ता निकालने और किसानों की आशंकाएं दूर करने के लिए ही सरकार बार-बार कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव दे रही है। जिस एमएसपी के मुद्दे पर किसानों को सबसे ज्यादा ऐतराज है, उस पर भी सरकार लिखित में आश्वासन देने को तैयार है। यह भी देखना होगा कि नये कानून को बने छह महीने से ज्यादा का वक्त बीत चुका है और एमएसपी की व्यवस्था उसी तरह जारी है जैसे कानून बनने से पहले थी। एमएसपी पर खरीद भी उन्हीं मंडियों से की जा रही है, जिनके बारे में कहा जा रहा है कि वो नये कानून आने के बाद खत्म हो जाएंगी।

ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि यह व्यवस्था केवल किसानों के गुस्से को शांत करने के लिए की जा रही है। मोदी सरकार के दोनों कार्यकालों का ट्रैक रिकॉर्ड देखें, तो पिछले छह साल में एमएसपी ही नहीं, खरीद का आंकड़ा भी कई गुना तक बढ़ चुका है। पहले गेहूं और धान पर ही एमएसपी मिलती थी, लेकिन मोदी सरकार ने दलहन और तिलहन को भी इसमें शामिल किया है। इसके साथ ही किसानों का मुनाफा बढ़ाने और खेती को आसान बनाने के लिए पीएम किसान सम्मान निधि, फसल बीमा, सॉयल हेल्थ कार्ड, नीम कोटिंग यूरिया जैसी तमाम योजनाएं शुरू की गई हैं। गोदामों और कोल्ड स्टोरेज की चेन को भी गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए एक लाख करोड़ रुपये का फंड बनाया गया है। किसान हित में उठाए गए ऐसे कई कदमों का जिक्र कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर की किसानों को लिखी गई चिट्ठी में भी है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बाजार का हिस्सा होने की वजह से सरकार के सामने कुछ चुनौतियां भी हैं। जैसे एमएसपी की वजह से मक्का, सोयाबीन जैसी कुछ फसल में स्थानीय खरीद की तुलना में आयात सस्ता पड़ता है। इससे पॉल्ट्री उद्योग और तेल मिलों का संचालन घाटे का सौदा बनता जा रहा है। सरकार की सोच है कि किसानों की आमदनी केवल एमएसपी के ही भरोसे क्यों रहे? क्यों नहीं भविष्य की जरूरतों के हिसाब से इसके लिए कुछ नये विकल्प भी आजमाए जाएं? जैसे अमेरिका में होता है, जहां सरकार वैल्यू एडिशन पर टैक्स लगाकर उसे सब्सिडी की शक्ल में वापस कृषि उद्योग को ही दे देती है।

दूसरी तरफ किसानों का नजरिया है, जिसकी बुनियाद में सालों-साल खेतों में बहाए गए खून-पसीने का जमीनी अनुभव है और जिसे महज ‘सियासी छलावा’ बताकर खारिज नहीं किया जा सकता। बेशक सरकार एमएसपी पर लुभावने आंकड़े पेश कर रही हो, लेकिन इसके भविष्य को लेकर किसानों का आक्रोश कम होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। खासकर एमएसपी पर सरकार के लिखित आश्वासन वाले प्रस्ताव ने किसानों को और सशंकित कर दिया है। किसानों की चिंता इस बात को लेकर है कि अगर सरकार लिखित आश्वासन दे सकती है, तो उसे कानून में शामिल करने में क्यों आनाकानी कर रही है? जिस तरह सरकार नये कानूनों के समर्थन में विपक्ष के घोषणापत्रों को ढाल बना रही है, उसी तरह किसान साल 2011 में एमएसपी को कानून बनाने की बीजेपी की मांग और आढ़ितयों को किसानों का एटीएम बताने वाले दावे को आगे कर रहे हैं। किसानों की दलील है कि फसल के दाम केवल मांग-आपूर्ति के आसरे नहीं रहना चाहिए। महंगाई से आम आदमी को राहत देने के लिए सरकार कई कदम उठाती है, लेकिन उसका बोझ देश का किसान क्यों उठाए? आखिर सब्सिडी की व्यवस्था ऐसे हालात से निपटने के लिए ही तो शुरू की गई है।   

नये कानूनों से देश में कहीं भी फसल बेचने की आजादी के सरकारी दावे पर भी किसानों का अपना तर्क है। किसानों का कहना है सरकार केवल छह फीसद अनाज खरीदती है, बाकी 94 फीसद उपज आज भी बाजार में ही बिकने आती है। इसलिए अगर सरकार का मकसद किसानों का फायदा करना ही है, तो वो एमएसपी को कानून बना दे, ताकि अगर व्यापारी उससे कम पर खरीदे तो उसे सजा का डर रहे। फिर किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए न कहीं दूर जाने पड़ेगा, न मंडियों में आढ़ितयों के भरोसे रहना पड़ेगा। किसानों को आशंका है कि नये कानून से जो व्यवस्था अमल में आएगी वो किसानों के नहीं, बल्कि एग्री बिजनेस के फायदे के लिए लाई जा रही है। किसानों की आय बढ़ाने के अमेरिकी मॉडल का समर्थन करने वाले सरकारी पक्ष की काट के लिए किसान भी उसी अमेरिकी मॉडल को आगे कर रहे हैं, जहां एग्री बिजनेस ने खेती पर कब्जा कर लिया है और पीढ़ियों से खेती कर रहे परिवार एक फीसद से कम रह गए हैं। भारत में साठ फीसद फैमिली किसान हैं, जिन्हें यह डर सता रहा है कि अगर अमेरिका जैसे हालात यहां बने तो उसका असर बड़ा दूरगामी हो सकता है, लेकिन हमारे देश की किसानी के लिए किसी दूसरे देश का अनुभव मिसाल बने, इसके लिए न सरकारी तर्क व्यावहारिक दिखता है, न ही किसानों का डर वाजिब लगता है। क्यों नहीं इस मामले में हम स्वदेशी तजुर्बे से समस्या का निदान ढूंढते हैं। केरल मॉडल की कामयाबी क्या किसी मिसाल से कम है? मौजूदा गतिरोध में भी हमारे राज्य निर्णायक भूमिका निभा कर केन्द्र का बोझ हल्का कर सकते हैं। कृषि राज्य और केंद्र सरकार दोनों का विषय होता है, इसलिए अगर राज्य अपने किसानों को सुविधा देंगे, तो उसे बाहर भटकने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। अगर राज्य बिचौलियों को खत्म कर देंगे, तो मंडियों में ही किसानों को कारोबार की आजादी मिल सकती है।

कुल मिलाकर मकसद किसानों के जीवन को समृद्ध बनाने का होना चाहिए, जिसकी ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इशारा भी करते रहे हैं। प्रधानमंत्री की इस सोच पर कौन ऐतराज करेगा कि भारत का किसान अब और पिछ़ड़ेपन में नहीं रह सकता। सवाल इस सोच को अमल में लाने का है। सरकार दावा कर रही है कि नये कृषि कानून इस दिशा में अब तक उठाए गए कदमों का ही विस्तार हैं, लेकिन किसान इस दावे पर ऐतबार नहीं कर पा रहे हैं। साफ तौर पर फर्क नजरिए का है, जो अलग-अलग खेमों में खड़े होकर नहीं, बल्कि साथ बैठकर बात करने से ही दूर होगा।

उपेन्द्र राय


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