नई इमारत नई इबारत
देश को स्वतंत्र हुए यूं तो सात दशक से ज्यादा वक्त गुजर चुका है, लेकिन आजाद देश में अब भी कुछ ऐसी परम्पराएं और प्रतीक बचे रह गए हैं, जो हमें गुलामी के दंश का अहसास करवाते रहते हैं। करीब सौ साल पहले बना संसद का पुराना भवन ऐसा ही एक प्रतीक है।
नई इमारत नई इबारत |
लोकतंत्र की आस्था का सबसे बड़ा प्रतीक कहे जाने वाली हमारी संसद आज बेशक आजाद ख्याली के दम पर तरक्की कर रहे देश की नुमाइंदगी करती हो, फिर भी अंग्रेजों के दौर में हुए निर्माण की वजह से इसे अब तक गुलामी के साए से छुटकारा नहीं मिल पाया है, लेकिन मोदी सरकार ने संसद को अब इस पहचान से मुक्त करने का बीड़ा उठाया है। 10 दिसम्बर को नये संसद भवन की आधारशिला रखकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक मायने में भारत के संसदीय इतिहास में एक नये दौर की शुरु आत भी कर दी है।
जरूरी था यह बदलाव
सरकार को उम्मीद है कि संसद की नई इमारत केवल ईट-पत्थर की नहीं, बल्कि नये भारत की 135 करोड़ आकांक्षाओं की नई इबारत लिखने का भी काम करेगी। हालांकि संसद भवन और उसके आसपास के चार किलोमीटर के क्षेत्र को बदलने जा रहे इस सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को लेकर फिजूलखर्ची के आरोपों जैसे विरोध के कुछ स्वर भी उठे हैं, जिससे मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। अदालत ने फैसला आने तक नई इमारत के निर्माण और पुराने भवन में तोड़फोड़ पर तो रोक लगाई है, लेकिन आधारशिला रखे जाने पर कोई बंदिश नहीं लगाई है। सरकार की दलील है कि जन-भावना ही नहीं, आने वाले वक्त की जरूरत के हिसाब से भी यह बदलाव जरूरी हो गया था। साल 2026 में अगला परिसीमन प्रस्तावित है। बढ़ी हुई आबादी के हिसाब से लोक सभा में जन-प्रतिनिधित्व का पैमाना भी बढ़ेगा और ऐसी संभावना है कि तब लोक सभा की सीटें मौजूदा 543 से बढ़कर 800 तक जा सकती हैं। इसी अनुपात में राज्य सभा की सीटों का इजाफा भी हो सकता है। यानी नई संसद को अपने जनप्रतिनिधियों के लिए करीब 150 फीसद तक की ज्यादा जगह की जरूरत पड़ सकती है। अभी तो हाल यह है कि दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाने पर सेंट्रल हॉल में अतिरिक्त कुर्सयिां लगा कर जैसे-तैसे काम चलाया जाता है। इसके साथ ही नये भवन में सुरक्षा, बिजली खपत और इको-फ्रेंडली जैसी नये दौर की बुनियादी जरूरतों का भी ध्यान रखा जाएगा।
उत्पादकता भी तय हो
बहरहाल, यह सब तो अधोसंरचना निर्माण से जुड़े विषय हैं, बड़ा सवाल तो मूल्यों के निर्माण का है क्योंकि लोकतंत्र जब अपने भविष्य की ओर देखता है, तब मूल्यों की मजबूती ही उसकी सुरक्षा का भरोसा दे सकती है। यह बहस का विषय हो सकता है कि संसदीय जवाबदेही सुनिश्चित करने के मोर्चे पर हमारे जनप्रतिनिधियों ने अब तक आम चुनावों को छोड़कर दूसरा कौन-सा नया रास्ता तलाशा है? क्या यह अच्छा नहीं होगा कि नई इमारत के साथ ही संसद और जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही पर नये सिरे से चर्चा शुरू की जाए? जब कार्यपालिका और न्यायपालिका से लेकर मतदाताओं तक हर स्तर पर जिम्मेदारी तय की जा रही है, तो संसद एवं सांसदों की उत्पादकता तय क्यों नहीं की जानी चाहिए? बेशक मोदी सरकार के कार्यकाल में संसद के संचालन में सुखद बदलाव आया है। कोविड महामारी के दौर में हुए मानसून सत्र में तो सदन की कार्य उत्पादकता 167 फीसद रही। हमारे संसदीय इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, वरना तो संसद में शोर-शराबा और एक-के-बाद-एक बेनतीजा सत्र की पुरानी परिपाटी रही है। दो दिन तक सदन मध्य रात्रि तक काम करता रहा और इस सबका नतीजा ये निकला कि मात्र दस दिन के सत्र में 25 विधेयक पारित हो गए। करीब 99 फीसद विषयों के जवाब देकर सरकार ने भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई, लेकिन अब सरकार की जिम्मेदारी बढ़ गई है, क्योंकि कामकाज का यह सिलसिला केवल एक सत्र तक सीमित होकर नहीं रहना चाहिए।
जब नई संसद अपना कामकाज शुरू करेगी तो सरकार से इसी तरह की अपेक्षाएं चुनाव सुधार को लेकर भी रहेंगी। देश के राजनीतिक तंत्र पर अक्सर यह आरोप लगता है कि कोई भी सरकार वास्तव में चुनाव सुधार नहीं चाहती। नब्बे के दशक में जो चुनाव सुधार हुए, उसका बड़ा क्रेडिट भी तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन को जाता है। शेषन की ही तरह मुख्य चुनाव आयुक्त रह चुके सुनील अरोड़ा भी सख्त छवि और प्रशासनिक कौशल के लिए जाने गए। हालांकि मोदी सरकार ने इस मोर्चे पर भी पुरानी परिपाटी को बदला है। चुनावों में संदिग्ध लेन-देन को रोकने के लिए ‘इलेक्टोरल फंडिंग’ जैसे सुधार हो या काले धन पर लगाम के लिए एंटी-मनी लॉन्ड्रिंग वाला कानून, सरकार ने इस दिशा में हालात सुधारने की इच्छाशक्ति तो दिखाई है। नोटबंदी के पीछे भी मंशा काले धन को रोकने की ही थी, लेकिन अर्थव्यवस्था की चुनौती के बीच यह मकसद अपनी अपेक्षाओं के मुताबिक जमीन पर नहीं उतर पाया। राजनीति को दागियों और अपराधी तत्वों से मुक्त करने का अभियान भी फिलहाल लक्ष्य से काफी दूर दिखता है।
आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का गवाह
कुछ इसी तरह का हाल ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ का दिखता है। हालांकि यह मुद्दा मोदी सरकार के महत्त्वाकांक्षी प्रोजेक्ट में शामिल है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद इस विषय को काफी प्राथमिकता देते हैं, यहां तक कि लॉ कमीशन भी 2015 की अपनी रिपोर्ट में कह चुका है कि लोक सभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाते हैं, तो इससे करोड़ों रु पये बचाए जा सकते हैं। 1952 में जब देश का पहला लोक सभा चुनाव हुआ तब चुनावी खर्च 10.52 करोड़ रु पये रहा था, 2014 तक आते-आते यह आंकड़ा 3,870 करोड़ रु पये तक पहुंच गया यानी करीब 380 गुना की वृद्धि। इसके अलावा बार-बार लगने वाली चुनाव आचार संहिता से देश विकास कायरे के मोर्चे पर जो पिछड़ता है, वो अलग। व्यावहारिक रूप से यह इसलिए भी चुनौतीपूर्ण दिखता है, क्योंकि देश में हर साल विधानसभा चुनावों का औसत पांच राज्यों का बैठता है। साल 2021 में ही जनवरी से जून के बीच छह राज्यों में चुनाव होने हैं। ऐसे में अगर सरकार लोक सभा एवं विधानसभाओं के चुनाव में एकरूपता लाने में कामयाब हो जाती है, तो यह राजनीतिक तंत्र ही नहीं, बल्कि देश के भविष्य के लिए भी बड़े उत्सव का विषय होगा। वैसे यह जानकारी दिलचस्प हो सकती है कि आजाद देश में 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोक सभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए, लेकिन फिर 1968 और 1969 में कई विधानसभाओं और 1970 में लोक सभा को समय से पहले भंग कर दिए जाने से यह परम्परा ऐसी थमी कि आज तक नहीं शुरू हो पाई। उम्मीद की जानी चाहिए कि संसद की नई इमारत, इस दिशा में नई इबारत लिखने का काम करेगी। जिस तरह संसद का पुराना भवन आजादी के बाद के भारत को नई दिशा देने का माध्यम बना, उसी तरह नया भवन आत्मनिर्भर भारत के निर्माण का गवाह बने। कुल मिलाकर उम्मीद यही है कि स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में संसद जब अपने नये भवन में कामकाज शुरू करे, तो एक नई ऊर्जा से ओत-पोत दिखे।
| Tweet |