पुराने सहयोगी, नई शुरुआत
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण और पुलवामा पर पाकिस्तान के नापाक खुलासे के साथ ही बीते हफ्ते में एक और खबर खासी चर्चा में रही।
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यह थी अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पोम्पियो और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर की भारत यात्रा से जुड़ी खबर। बेशक कई अहम रणनीतिक करार की वजह से 26 घंटे की इस यात्रा को दोनों ओर से काफी तवज्जो दी गई, लेकिन इसके सुर्खियां बनने की यही अकेली वजह नहीं थी। दरअसल, अमेरिका में अगले हफ्ते राष्ट्रपति चुनाव होने हैं। अभी कोई नहीं जानता कि अमेरिकी जनता जीत का सेहरा किसके सिर बांधेगी? एक बार फिर मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जीतेंगे या फिर डेमोक्रेट जो बाइडेन को व्हाइट हाउस का टिकट मिलेगा? इस चुनाव का एक अहम पहलू यह भी है अमेरिकी भले अपने एक वोट से राष्ट्रपति चुनते हों, वो एक ऐसे नेता का भी चुनाव करते हैं, जिसकी सोच अगले चार साल के लिए पूरी दुनिया पर अपना असर डालती है। ऐसे अनिश्चित भविष्य के बावजूद अमेरिका से रणनीतिक बातचीत का मंतव्य आखिर क्या हो सकता है?
बातचीत जारी रखने के पीछे आम समझ इस बात की ओर ले जाती है कि शायद डोनाल्ड ट्रंप दोबारा सत्ता में वापसी करने जा रहे हों, लेकिन अमेरिका की सियासी फिजा तो कुछ और ही इशारा कर रही है। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण भी बाइडेन की ही बढ़त दिखा रहे हैं। ऐसे में कहीं वार्ता जारी रखना हमारी रणनीतिक भूल तो नहीं है? आमतौर पर ऐसे मौके पर इंतजार करने की परिपाटी रही है। वैसे भी पिछले चार साल में भले ही भारत-अमेरिकी संबंधों ने नई ऊंचाइयां देखी हों, इसके बावजूद विदेशी और रणनीतिक नजरिए से भारत अभी भी अमेरिका की प्राथमिकता वाले देशों में शामिल नहीं हो पाया है। फिर हमारे नजरिए में यह बदलाव क्यों? दरअसल, द्विपक्षीय संबंधों की गुत्थियां कई बार आपसी जरूरत को देखते हुए भी सुलझाई जाती हैं। ऐसे मौकों पर दूरगामी समाधान के लिए तात्कालिक जटिलताओं को दरकिनार भी कर दिया जाता है। अमेरिका के ‘संक्रांति काल’ में भारत से उसकी वार्ता जारी रखने के पीछे यही प्रक्रिया काम कर रही है और इसकी वजह बना है चीन जो आज अमेरिका के साथ ही भारत के लिए भी लगातार चुनौतियां खड़ी कर रहा है।
शीत युद्ध के दौरान रूस अमेरिका का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी हुआ करता था, आज वो जगह चीन ने ले ली है। इसी तरह कुछ दशक से जिस तरह पाकिस्तान हमारा सबसे बड़ा दुश्मन हुआ करता था, वहां अब चीन आकर खड़ा हो गया है। रूस अब चीन का सहयोगी है और पाकिस्तान तो अपने अस्तित्व के लिए अब पूरी तरह चीन के रहमो-करम पर है। भारत और अमेरिका ही क्यों, चीन तो आज ब्रिटेन समेत समूचे यूरोप और जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे बड़े लोकतंत्रों तक के लिए खतरा बन गया है। हमारी तुलना में अमेरिका के लिए यह ज्यादा बड़ी मुसीबत है क्योंकि इससे उसके सामरिक ही नहीं, व्यापारिक हित भी डांवाडोल हो रहे हैं। कारोबारी नजरिए से मध्य एशिया से लेकर इंडो-पैसिफिक तक का क्षेत्र अमेरिका की लाइफलाइन का काम करता है। तेल समेत उसकी कई जरूरतों की आपूर्ति इसी क्षेत्र से होती है। इस लिहाज से यहां शांति बनाए रखना अमेरिका की सर्वोच्च प्राथमिकता है, जिसके लिए उसने यहां समुद्री बेड़े तैनात कर रखे हैं। निगरानी के इस काम पर अमेरिका भारी-भरकम खर्च करता रहा है, लेकिन कोरोना काल में बदहाल अर्थव्यवस्था के बीच अमेरिका इस खर्च को कम करना चाहता है।
इस क्षेत्र में चीन का बढ़ता दखल पहले से ही अमेरिका को परेशान करता रहा है। इसकी काट के लिए जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ ही भारत की अहमियत काफी बढ़ जाती है। हिंद महासागर में वैसे भी भारत एक बड़ी ताकत है और चीन को साधने के लिए अमेरिका भारत को अत्याधुनिक हथियार देकर और भी ताकतवर बना सकता है। हथियार सप्लाई करने में उसका आर्थिक फायदा भी है। भारत के नजरिए से यह सहयोग इसलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यह न केवल उसकी ग्लोबल हैसियत को बढ़ाने का काम करेगा, बल्कि चीन को सीमा पर नियंत्रित रखने और पाकिस्तान की ओर से निश्चिंत हो जाने की सुविधा देगा।
इसलिए वार्ताओं के ताजे दौर को अमेरिकी चुनाव के नतीजों से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह सहयोग तात्कालिक नहीं बल्कि दूरगामी लगता है। भारत की ओर से लगातार कहा भी गया है कि यह राजनयिक दौरा था, राजनीतिक नहीं। यह पहला मौका नहीं है जब भारत ने अमेरिका के संदर्भ में किसी एक पक्ष के समर्थन में खड़े दिखने की चर्चाओं पर अपना विरोध दर्ज करवाया है। अमेरिकी मीडिया में ऐसी खबरें हैं कि पिछले महीने ही बीजेपी ने अमेरिका में अपने सहयोगी संगठनों को प्रचार में पार्टी का बैनर इस्तेमाल करने से बचने को कहा था, क्योंकि इसमें दोनों देशों के रणनीतिक संबंध प्रभावित होने का खतरा है। यह सर्वविदित है कि बीजेपी की अमेरिकन इकाई की छवि ट्रंप-समर्थक वाली रही है। इसलिए ऐसे वक्त में जबकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में जो बाइडेन के चुनाव जीतने की संभावना अधिक बताई जा रही है, यह छवि नये संबंधों की शुरुआत को प्रभावित कर सकती है। वैसे भी अमेरिकी राजनीति को लेकर भारत पारंपरिक रूप से निरपेक्ष रहता आया है और मौजूदा सरकार भी उस परंपरा के अनुरूप ही आगे बढ़ना चाहती है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मित्रता और सार्वजनिक मंचों पर इसकी खुलकर अभिव्यक्ति ने पिछले चार वर्षो में भारत-अमेरिकी संबंधों को एक नया आयाम दिया है। पिछले साल सितम्बर में ‘हाउडी मोदी’ के मौके पर तो ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी को अमेरिका का ‘सबसे करीबी और सर्वश्रेष्ठ दोस्त’ तक कहा था। इस साल फरवरी में अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ के दौरान भी दोनों नेताओं के बीच जबर्दस्त केमिस्ट्री देखने को मिली थी, लेकिन अब यह भी दिखाई दे रहा है कि जैसे-जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तारीख करीब आ रही है, भारत बेहद सधे अंदाज में खुद को निरपेक्ष दिखाने में कामयाब हो रहा है। अमेरिका में इस सदी के पहले चार चुनावों में बारी-बारी से डेमोक्रेट और रिपब्लिक राष्ट्रपति चुने गए हैं। भारत में भी इस दौरान क्रमश: कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए और बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए ने सत्ता संभाली है, लेकिन इस दौरान दोनों देशों के संबंध लगातार मजबूत होते रहे हैं। भारत द्विपक्षीय संबंधों को इसी तरह आगे बढ़ाने को इच्छुक है।
शायद इसलिए भारत उन चुनिंदा देशों में शामिल रहेगा जिन पर इस बात का ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि व्हाइट हाउस में पहुंचने वाला राष्ट्रपति रिपब्लिकन होता है या डेमोक्रेट। इसके बजाय भारत इस बात को ज्यादा तरजीह देगा कि जो भी राष्ट्रपति आए, वो चीन और पाकिस्तान के मसले पर कड़ा रु ख अपनाए और साथ ही रूस-ईरान जैसे देशों से भारत के संबंधों को अमेरिकी नजरिए से प्रभावित करने की कोशिश न करे। इसलिए वार्ताओं के इस दौर को चुनाव के नतीजे के बजाय दो पुराने सहयोगियों के बीच लंबे रणनीतिक सहयोग को जारी रखने के फैसले के तौर पर देखना ज्यादा उचित होगा।
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