पहला दौर किसका जोर?

Last Updated 31 Oct 2020 01:59:36 AM IST

बिहार में विधानसभा चुनाव 2020 का पहला राउंड पूरा हो गया है। बुधवार को 16 जिलों की 71 विधानसभा सीटों पर शांति से मतदान हुआ। कुल 53.54 फीसद मतदान की पुष्टि की गई है, जो पिछले चुनाव की तुलना में तीन फीसद ज्यादा है।


बिहार में विधानसभा चुनाव 2020 का पहला राउंड पूरा

परिस्थितियां सामान्य होतीं तो यह बढ़ोतरी ‘सांत्वना पुरस्कार’ वाला दर्जा पाती, लेकिन कोरोना काल और उस पर भी कुछ क्षेत्रों पर नक्सल प्रभाव होने से यहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पूरा करवाना संवेदनशील मामला था। इसीलिए मतदान में तीन फीसद के इस ‘उछाल’ को उल्लेखनीय कहना ज्यादा न्यायसंगत होगा। जिन 71 सीटों पर वोट डाले गए, उनमें से 35 को प्रशासन ने संवेदनशील माना था, इनमें भी चार तो अति-संवेदनशील थे। फिर भी उत्साह के बीच मतदान शांति से निबट गया। यह बिहार के उन मतदाताओं के जज्बे की वजह से संभव हआ, जिन्होंने सरकार के सुरक्षा इंतजामों पर भरोसा दिखाते हुए बढ़-चढ़कर मतदान किया। इस राउंड के खत्म होने के साथ ही बिहार विधानसभा की लगभग एक-तिहाई तस्वीर का फैसला अब ईवीएम में कैद हो गया है।

दावों की परिपाटी
जितना पुराना इतिहास चुनावों का है, उतनी ही पुरानी मतदान खत्म होने के बाद जीत के दावों की हमारी परिपाटी भी है। बिहार भी उसका अपवाद नहीं है। बीजेपी इसे शांति, विकास और स्थायित्व के लिए मतदान बता रही है और एनडीए के पक्ष में दो-तिहाई सीटों का दावा कर रही है। चुनाव से ठीक पहले पाला बदलने वाले जीतनराम मांझी तो 20-20 के ‘पहले ओवर’ में ही एनडीए की हाफ-सेंचुरी लगने का दम भर रहे हैं। दूसरी तरफ चिराग पासवान भी हैं, जिनकी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ठीक चुनाव से पहले गठबंधन से बाहर हुई थी। चिराग को अभी से जेडीयू के आंगन में अंधेरा और 10 नवम्बर को नीतीश कुमार से ‘छुटकारा’ दिखाई देने लगा है। महागठबंधन के मुखिया तेजस्वी यादव भी दावा कर रहे हैं कि बिहार की जनता सत्ता परिवर्तन का मन बना चुकी है यानी जिसकी जैसी डफली, उसका वैसा राग।

अधिक मतदान का तात्पर्य
सामान्य तौर पर अधिक मतदान को मौजूदा सत्ता को बदल देने का जनादेश समझ लिया जाता है, लेकिन हमने कई बार इसे सरकार के पक्ष में जाते भी देखा है। इसलिए राजनीतिक दल दावे कितने भी कर लें, ऊंट उसी करवट बैठेगा जिस ओर का इशारा जनता ने किया है।  

वैसे जनता का मूड भांपने के लिए हुए लगभग सभी चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों ने कड़ी टक्कर में एनडीए को महागठबंधन पर बढ़त मिलने का अनुमान लगाया है। ज्यादातर ओपिनियन पोल के मुताबिक एनडीए 38 फीसद और महागठबंधन 32 फीसद वोट शेयर हासिल कर सकता है। इसका सीटों में औसत अनुवाद एनडीए के लिए 140 और महागठबंधन को 95 सीटें मिलता दिखा रहा है। कोई भी ओपिनियन पोल लोकजनशक्ति पार्टी के ‘चिराग’ से किंगमेकर वाला जिन्न निकलने की उम्मीद नहीं कर रहा है। यहां भी परंपरा के मुताबिक सभी दल अनुमानों को झुठला रहे हैं।

एनडीए दो-तिहाई बहुमत का दावा कर रहा है, तो महागठबंधन अबकी बार, बिहार में पक्की सरकार का नारा बुलंद कर रहा है। चिराग पासवान को लग रहा है कि वो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ‘हनुमान’ बनकर सत्ता की जो संजीवनी लेकर आएंगे, वो बीजेपी का तो बेड़ा पार लगाएगी लेकिन नीतीश की सियासी नाव को मझधार में छोड़ देगी।

सत्ता की तरफ पहला कदम
चिराग फैक्टर मतदान के दौरान और नतीजे आने के बाद कितना असरकारी होगा, यह समय बताएगा, लेकिन फिलहाल तो दोनों मुख्य पक्ष को लग रहा है कि उन्होंने सत्ता की तरफ पहला कदम बढ़ा दिया है। इस ‘खुशफहमी’ की वजह पहले चरण में महिलाओं और युवाओं की बड़ी भागीदारी को माना जा रहा है। राज्य में पिछले तीन वर्ष के कार्यकाल और केंद्र में इसके दोगुने कार्यकाल के दौरान एनडीए महिला मतदाताओं को खुश रखने में कामयाब रही है, जबकि तेजस्वी के कारण बिहार में इस बार युवाओं के बीच महागठबंधन का बोलबाला दिख रहा है। इस लिहाज से एनडीए शराबबंदी और महागठबंधन रोजगार के मुद्दे  में अपनी उम्मीदें तलाश रहे हैं।

दिलचस्प बात यह है कि जातीय गोलबंदी के लिए बदनाम बिहार चुनावों में पहली बार नीतिगत मुद्दों पर बात कर रहा है। बिहार की गिनती राजनीतिक लिहाज से देश के चैतन्य प्रदेशों की पहली पंक्ति में की जाती है। इस नजरिए से यह बदलाव यकीनन स्वागतयोग्य है। बिजली-सड़क जैसे मुद्दे अपनी जगह हैं, लेकिन रोजगार और पलायन मुख्य रूप से विमर्श के केंद्र बन गए हैं। इस मोर्चे पर एनडीए का किला थोड़ा कमजोर दिख रहा है। इसकी काट के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पूरा एनडीए बिहार की जनता को लालू के जंगलराज की याद दिलाने में जुटा हुआ है। मध्यम-आयु वर्ग और बुजुर्ग मतदाताओं तक तो यह बात पहुंच रही है, लेकिन भविष्य के बड़े सपने देख रही बिहार की युवा पीढ़ी 15 साल पुराने फ्लैशबैक से खुद को कनेक्ट नहीं कर पा रही है। उसने तो नीतीश के 15 साल के कार्यकाल में अच्छी शिक्षा, उचित रोजगार और समृद्ध जीवन की अपनी आकांक्षाओं की धुंधली तस्वीर ही देखी है। एनडीए इस मुद्दे  पर पहले से बैकफुट पर है, उस पर सरकार के आला ओहदों पर बैठे नेताओं के अजीबोगरीब बयान चुनौती को और मुश्किल बना रहे हैं।

मुख्यमंत्री की दलील
सूबे के मुख्यमंत्री ने बिहार में बेरोजगारी के लिए समुद्र के नहीं होने की दलील दी है, तो उपमुख्यमंत्री को अब उद्योग-धंधों का जाल बिछाना तो याद आ रहा है, लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं सूझ रहा कि सरकार में रहते हुए अब तक ऐसा करने से उन्हें कौन रोक रहा था? ऐसे में तेजस्वी यादव के 10 लाख सरकारी नौकरी के वादे बनाम बीजेपी के 19 लाख रोजगार के दावे में पलड़ा किसकी ओर झुकेगा, यह नतीजों से ही तय होगा। रोजगार जैसे मुद्दे के केंद्र में आने से युवा नेतृत्व की चर्चा ने भी जोर पकड़ा है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस वजह से भी बिहार के युवाओं में नीतीश कुमार और सुशील मोदी की तुलना में तेजस्वी यादव और चिराग पासवान की अपील ज्यादा दिख रही है। ऐसे में एनडीए को प्रदेश की बेहतर जीडीपी, केंद्र और राज्य की विकासपरक योजनाएं और सबसे ऊपर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देश में सर्वव्यापी लोकप्रियता का ही सहारा है।

विश्वसनीयता बड़ा मुद्दा
एक बड़ा सवाल गठबंधन की विसनीयता को लेकर भी है, जो पहले चरण का चुनाव निबटने के बावजूद बरकरार है। पिछले विधानसभा चुनाव में जब बिहार की जनता वोट डालने के लिए अपने घरों से निकली थी, तब जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस एक तरफ थे और बीजेपी-एलजेपी दूसरी तरफ। इस बार आरजेडी-कांग्रेस तो साथ-साथ हैं, लेकिन जेडीयू पाला बदलकर बीजेपी का हाथ थाम चुकी है और एलजेपी सैद्धांतिक रूप से अलग-थलग है। संभवत: देश के चुनाव में पहली बार गठबंधन के अंदर भी उप-गठबंधन हुए हैं। इसके तहत जीतनराम मांझी के हिंदुस्तानी अवाम मोर्चे यानी हम का जेडीयू के साथ और विकासशील इंसान पार्टी यानी वीआईपी का बीजेपी के साथ उपगठबंधन है। इसका मतलब क्या यह लगाया जाए कि जेडीयू को ‘वीआईपी’ और बीजेपी को ‘हम’ मंजूर नहीं है। इस सबके बीच ऐसे कयास भी लग रहे हैं कि विरोधियों को ‘आउट’ करने के लिए बीजेपी की बॉलिंग पर फील्डिंग दरअसल, चिराग पासवान कर रहे हैं। इस धारणा को तीन बातों से बल मिल रहा है, बीजेपी के कई नेता पार्टी से ‘बगावत’ कर एलजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं, दूसरा केंद्र में एलजेपी को अब तक एनडीए से बाहर नहीं निकाला गया है; और तीसरा, चिराग पासवान पर बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को छोड़कर बड़े नेताओं की चुप्पी।

सियासी दलों में पसरा अविश्वास  

सियासी दलों के बीच पसरे ऐसे अविश्वास ने बिहार की जनता को इस उलझन में डाला हुआ है कि कहीं नतीजे आने के बाद कुछ दल सत्ता के लिए दलबदल कर नया गठजोड़ न बना लें। वैसे लोकतंत्र का ऐसा इम्तिहान न देश के लिए नया है, न बिहार के लिए, बस इस बार इसका अंदाज थोड़ा निराला है।

उपेन्द्र राय


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