इस आतंक पर ’विजयदशमी‘ कब?

Last Updated 25 Oct 2020 03:01:41 AM IST

फ्रांस एक बार फिर गलत वजहों से सुर्खियों में है। ‘सिटी ऑफ लव’ कहलाने वाली फ्रांस की राजधानी पेरिस आज नफरत की आग में सुलग रही है।




इस आतंक पर ’विजयदशमी‘ कब?

इसकी तात्कालिक वजह बनी है 18 साल के एक शख्स के हाथों एक अध्यापक की हत्या। इंसान जब इंसान का कत्ल कर दे, एक ऐसे व्यक्ति का सिर कलम कर असमय काल के गाल में धकेल दे जो ज्ञान की रौशनी फैलाकर छात्रों के उज्ज्वल भविष्य का मार्ग प्रशस्त करता है, तो सभ्य समाज का गुस्सा फूटना वाजिब लगता है। इस बर्बरता को अंजाम दिया है चेचन मूल के 18 साल के एक लड़के ने जिसे स्कूली शिक्षक के मुंह से निकला ‘शार्ली एब्दो’ का जिक्र इतना नागवार गुजरा कि उसने उस मुंह को ही धड़ से अलग कर दिया। इस घटनाक्रम में सामने आया चेहरा भले ही बाली उमर के लड़के का हो, लेकिन फ्रांसीसी सरकार उसे ‘मोहरा’ मानकर ही चल रही है।

सरकार के लिए तत्काल राहत की बात ये रही कि शिक्षक की नृशंस हत्या के चंद घंटे बाद ही पुलिस ने कातिल को मार गिराया। इसके अलावा पुलिस उन चालीस संदिग्ध ठिकानों पर छापेमारी कर चुकी है, जहां साजिश के तहत कातिल को मदद कर रहे दर्जन भर संदिग्ध उसके हाथ लगे हैं। षड्यंत्र में शामिल दूसरे कसूरवारों की तलाश में एक मस्जिद भी घेरे में आ गई है जिसके बारे में पुलिस का दावा है कि वारदात से पहले वहां से फेसबुक पर एक वीडियो साझा हुआ था जिसमें शिक्षक के स्कूल के बारे में तफ्सील से बताया गया था।

आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के अंदाज में हुई हत्या और उसका मस्जिद से कथित कनेक्शन सामने आते ही फ्रांस के राष्ट्रपति ने भी इसे ‘इस्लामिक आतंकवाद’ का नाम देने में देर नहीं लगाई। इसके बाद अब पूरी दुनिया में इस्लाम को लेकर पुरानी बहस नए सिरे से फिर शुरू हो गई है। इस बहस का एक सिरा साल 2015 से जाकर जुड़ता है जब शार्ली एब्दो पत्रिका ने पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापने की ‘गुस्ताखी’ की थी। चरमपंथी तबके को अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता रास नहीं आई और पत्रिका से जुड़े कुछ मशहूर कार्टूनिस्टों समेत 12 लोग मार दिए गए। इस घटना के बाद अकेले फ्रांस में ही ऐसा कोई साल नहीं गुजरा जब वहां चरमपंथी घटना नहीं हुई हो। नवम्बर, 2015 में पेरिस और उपनगर डेनिस में सीरियल आतंकी अटैक हुए जिसमें 130 लोग मारे गए, अगले साल मैग्ननिवले में एक पुलिस कमांडर और उसके सहयोगी पर हमला हुआ, फिर नाइस में जिहादियों ने 86 लोगों को लॉरी से कुचल दिया। हर घटना का तार किसी-न-किसी रूप में शार्ली एब्दो से जुड़ा।

यूरोप समेत दुनिया भर में मुख्यधारा के मुस्लिम संगठनों की ओर से हर घटना की निंदा हुई। इन सबके बीच यह बात भी स्थापित करने की कोशिश हुई कि चूंकि इस्लामिक परंपरा में अल्लाह या पैगंबर की तस्वीर दिखाने का ही निषेध है, तो उनके खिलाफ बयान या कार्टून छापने जैसी ‘हरकत’ भी मंजूर नहीं की जा सकती। लेकिन क्या इसका ‘बदला’ केवल हत्या से ही पूरा हो सकता है? धर्म, राष्ट्र या विचारधारा कोई भी हो, हिंसा की किसी भी घटना को सभ्य समाज में जायज कैसे ठहराया जा सकता है? हाल के दिनों में ऐसी घटनाओं की लहर देखकर अब धर्म की उदारवादी व्याख्या करने वाले भी भविष्य में कट्टरपंथ की भयावहता को लेकर बंटने लगे हैं। हालांकि इनका एक खेमा अब भी इस दलील पर मजबूती से टिका है कि आतंक की घटनाओं पर धर्म का लेबल नहीं लगाया जाना चाहिए। बात सही भी है। इसे लेकर कम-से-कम दो दलीलें तो ऐसी हैं ही, जिन्हें आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। पहली यह कि कई मामलों में अपनी नाकामी छिपाने के लिए सियासी नेतृत्व समाज के एक खास तबके को बलि का बकरा बना देता है। अमेरिका, रूस, चीन और यहां तक कि फ्रांस भी इसका अपवाद नहीं है। फिर मुस्लिम देशों की अपनी राजनीतिक विफलताएं हैं जिनसे धर्म की आड़ लेकर पल्ला झाड़ लिया जाता है। अधिकतर मुस्लिम देशों में सत्ता पर एकाधिकार और लंबे समय से चला आ रहा पिछड़ापन बरकरार है। यहां आजाद ख्याली पर बंदिश लगाने वाले कानूनों का चलन है, जो इस्लाम के मुताबिक नहीं बल्कि सत्तानशीनों की मर्जी का नतीजा है।

बेशक, इन दलीलों में दम हो, लेकिन दुर्भाग्य से इस हकीकत को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि ज्यादातर मामलों में धर्म और आतंक का कनेक्शन भी नजर आता है। इस्लामिक स्टेट, अल कायदा, जैश, लश्कर, बोको हरम उन बीसियों संगठनों में शुमार हैं जो आज दुनिया भर में आतंक की पहचान बने हुए हैं। जितना इनका एक खास विचारधारा से जुड़ाव स्पष्ट है, उतना ही यह भी साफ है कि इनसे वैश्विक शांति को ही नहीं, इस्लाम को भी खतरा है। इस्लामिक स्टेट ने मुस्लिम देशों का ही क्या हाल कर रखा है, यह किसी से छिपा नहीं है। ईरान, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान सब आतंकी संगठनों के जुल्मों से त्रस्त हैं। चरमपंथियों में जिहाद का यह जुनून ही मुसलमानों को दूसरे देशों में नफरत का शिकार बना रहा है।

अमेरिका में छह देशों के मुस्लिम नागरिकों का प्रवेश वर्जित है, तो फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे यूरोप के बड़े देशों में बढ़ती मुस्लिम आबादी को लेकर आए-दिन सड़कों पर हिंसा का तमाशा होता है। जर्मनी में तो राष्ट्रवादियों ने बाकायदा पैट्रियॉटिक यूरोपियन्स अगेन्स्ट द इस्लामाइजेशन ऑफ द वेस्ट यानी ‘पेगिडा’ नाम का एक संगठन बनाया हुआ है, जो वहां मुस्लिम शरणार्थियों की बढ़ती तादाद के विरोध में अक्सर सड़कों पर दिखाई दे जाता है। फ्रांस भी एक ऐसा कानून लाने की तैयारी में है जिससे विदेश के इमाम फ्रांस की मस्जिदों में इमामत नहीं कर सकेंगे और छोटे बच्चों को घरों में इस्लामी शिक्षा नहीं दी जा सकेगी।

ये तमाम प्रयास 15वीं से 17वीं सदी के बीच हुए उस पुनर्जागरण आंदोलन की याद दिलाते हैं जिसका केंद्र यूरोप बना था और कम-ज्यादा मात्रा में इसका असर दुनिया के बाकी हिस्सों तक भी पहुंचा था। इसके तमाम लक्ष्यों में से एक लक्ष्य धार्मिंक प्रगति का भी था। करीब चार सदी बाद धर्म एक बार फिर दुनिया भर में बहस का विषय बन गया है, संयोग से यूरोप इसका केंद्र भी है लेकिन लक्ष्य इस बार उतना साफ नहीं दिख रहा। उलझन इस बात की है कि धार्मिंक फोबिया का शिकार हुए बिना धर्म के नाम पर हो रही हिंसा से कैसे निबटा जाए? कैसे दुनिया भर में सिर उठा रहे इस आतंक रूपी रावण पर ‘विजयदशमी’ मनाई जाए? सवाल मुश्किल जरूर है, लेकिन जवाब इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर आज यह चिंगारी नहीं बुझी तो कल इसकी आग में पूरी दुनिया का जलना तय है।

उपेन्द्र राय


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