किसकी बचेगी नाव किसकी डूबेगी?

Last Updated 24 Oct 2020 02:36:30 AM IST

देश में इन दिनों लोकतंत्र का ‘त्यौहारी सीजन’ चल रहा है। हिंदी बेल्ट में राजनीतिक रूप से समृद्ध दो प्रमुख प्रदेश बिहार और मध्य प्रदेश में चुनावी बयार बह रही है। चुनाव भले ही प्रदेश स्तर के हों, लेकिन इनके नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर अपना असर छोड़ेंगे।


किसकी बचेगी नाव किसकी डूबेगी?

देश में अरसे बाद आई पूर्ण बहुमत वाली मजबूत सरकार और दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल बीजेपी, दोनों के लिए यह चुनाव बड़े बदलाव की वजह बन सकते हैं। खासकर बिहार के लिहाज से देखें, तो बीजेपी ने साफ कर दिया है कि बहुमत मिलने पर बड़ी पार्टी और छोटी पार्टी के झगड़े से ऊपर उठकर वो नीतीश कुमार की ताजपोशी करना चाहेगी।

राजनीति में हर बात के कई मायने होते हैं, इसलिए इस बयान पर यह सोच भी बन रही है कि बीजेपी चुनाव में जेडीयू के समर्थक वोट भी अपने खाते में डाल लेना चाहती है और बाद में नतीजे देखकर गठबंधन से बाहर भी संभावना तलाश सकती है। लेकिन क्योंकि यह बयान पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से आया है, इसलिए इस पर भरोसा कर फिलहाल इसे नीतीश को बीजेपी से मिली एक और लाइफलाइन माना जा सकता है। वैसे इस बयान के और भी अर्थ लगाए जा रहे हैं। एनडीए गठबंधन साथियों के दरकते भरोसे का शिकार होता जा रहा है, एक-के-बाद-एक साथी उससे छिटकते जा रहे हैं। शिवसेना, अकाली दल के बाद इस चुनाव के लिए एलजेपी भी एनडीए से बाहर निकल गई है। ऐसे में प्रादेशिक सहयोगी ही सही, जेडीयू से बीजेपी का छिटकना भविष्य में दूसरे दलों से गठबंधन की बुनियाद में ‘अविास की दीमक’ वाला काम कर सकता है। हालांकि यह सवाल तब भी बरकरार रहेगा कि बीजेपी का कैडर बिहार में कितने लंबे वक्त तक छोटे भाई वाली ‘हैसियत’ सहन करता रहेगा। व्यक्तिगत स्तर पर भी क्या सत्तर के करीब पहुंच रहे सुशील मोदी तीन दशक की राजनीति के बाद प्रादेशिक नेता, उस पर भी उपमुख्यमंत्री बने रहने में संतुष्ट रहेंगे या उनके ललिए केंद्र में नई भूमिका तलाशी जाएगी।

मध्य प्रदेश में हालात भिन्न
दूसरे चुनावी राज्य मध्य प्रदेश में हालात बिल्कुल उलट हैं। सुशील मोदी को भले अब तक एक बार भी सीएम पद नहीं मिल पाया है, मध्य प्रदेश में पार्टी का चेहरा बने शिवराज सिंह चौहान चौथी बार इस कुर्सी की शोभा बढ़ा रहे हैं। लेकिन यह चौथी पारी कितने वक्त तक जारी रहेगी, यह लाख-टके का सवाल है। मध्य प्रदेश में उपचुनाव का इम्तिहान भले ही विधानसभा की दस फीसद से कुछ ज्यादा सीटों का हो, लेकिन सरकार सौ-फीसद इनके नतीजों पर टिकी है। जिस राज्य में पिछले 16 साल में 30 सीटों पर उपचुनाव हुए हों, वहां एक साथ 28 सीटों पर चुनाव को सामान्य घटना नहीं माना जा सकता। कभी कट्टर कांग्रेसी रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया से पाला बदलवाने का पासा उल्टा पड़ने की उम्मीद भले कम हो, लेकिन कयास यही है कि जीत की सूरत में भी प्रदेश सरकार की तस्वीर बदलना तय है और इसकी शुरु आत शिवराज को केंद्र में बुलाकर हो सकती है। सिंधिया इसकी अगली कड़ी बन सकते हैं। फैसला बेशक एक-सा दिखे, लेकिन दोनों के लिए इसके मायने बिल्कुल अलग होंगे। शिवराज इसे मन मार कर मंजूर करेंगे, जबकि सिंधिया के लिए यह मन की मुराद पूरी होने जैसा होगा। वैसे भी सिंधिया के रहने तक ग्वालियर-चंबल क्षेत्र मे कांग्रेस की राजनीति महल तक सिमटी हुई थी, लेकिन बीजेपी में हालात कुछ और हैं। केंद्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, जयभान सिंह पवैया, नरोत्तम मिश्रा, प्रभात झा, प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा जैसे धाकड़ नेताओं की मौजूदगी में इस क्षेत्र की राजनीति में सिंधिया का दखल उनके कांग्रेसी दिनों की तरह सहज स्वीकार्य न होगा। इसलिए सिंधिया भी दो-नाव पर चलने के बजाय केंद्र की राजनीति करना ज्यादा पसंद करेंगे।

एक तरफ बंद कमरों में राजनीतिक भूमिकाएं बदलने को लेकर मंथन चल रहा है, तो दूसरी तरफ चौक-चौराहों पर चर्चा नेताओं के दल बदलने को लेकर भी हो रही है। बिहार में कुल छह गठबंधन चुनाव मैदान में हैं, लेकिन हर गठबंधन की तस्वीर पिछले चुनाव के मुकाबले बदली हुई है। चुनाव ने पार्टी और विचारधारा को गौण कर दिया है। टिकट कटने या नहीं मिलने पर नेता दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ाने की घोषणा में जरा भी देर नहीं कर रहे हैं। क्या जेडीयू, क्या बीजेपी, क्या आरजेडी और क्या कांग्रेस हर पार्टी का एक-सा हाल है। ऐसा पिछले चुनावों में भी होता रहा है, लेकिन इस बार का नजारा निराला है। पिछली बार साथ मिलकर लड़े जेडीयू और आरजेडी इस बार आमने-सामने हैं। बीजेपी के खिलाफ लड़ी जेडीयू इस बार उसके साथ है। एनडीए में जेडीयू बड़ा भाई है, तो महागठबंधन में कांग्रेस और वामपंथी आरजेडी की अगुवाई में लड़ रहे हैं। चुनाव का ऐलान होने से पहले उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी यानी आरएलएसपी, पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा यानी हम और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी यानी वीआईपी महागठबंधन के साथ थीं।

कॉर्डिनेशन कमेटी के नाम पर सबसे पहले मांझी ने साथ छोड़ा, फिर आरएलएसपी महागठबंधन से अलग हो गई। एक भी सीट नहीं मिलने से ‘मामूली’ साबित होने का अपमान लेकर वीआईपी भी महागठबंधन से बाहर हो गई। दलबदल के बाद मांझी की सियासी नाव एनडीए के किनारे जाकर लगी, उपेन्द्र कुशवाहा ने बीएसपी से हाथ मिला लिया लेकिन वीआईपी को कोई ठौर नहीं मिल पाया। चुनाव बाद विपक्षियों से सौदेबाजी की आशंका के कारण आरजेडी ने भी इन्हें मनाने की कोई कोशिश नहीं की। इस सबके बीच एनडीए की तस्वीर उलझ गई है, जहां गठबंधन के अंदर भी गठबंधन दिख रहे हैं। मांझी आए तो उन्होंने बताया कि उनका गठबंधन तो जेडीयू से है। एनडीए छोड़ने से पहले तक चिराग पासवान कहते रहे कि वो जेडीयू के खिलाफ, लेकिन बीजेपी के साथ हैं।  

खैर, बिहार में तो सारी कवायद चुनाव बाद सरकार बनाने को लेकर चल रही है, लेकिन मध्य प्रदेश का खेल बिल्कुल अलग है। वहां 25 विधायकों ने अपने नेता की ‘महत्त्वाकांक्षा’ पूरी करने के लिए जनमत से ही दूरी बना ली। अब ये विधायक उसी पार्टी के खिलाफ ताल ठोक रहे हैं, जिसके टिकट पर वे 15 महीने पहले चुनाव जीतकर आए थे। सत्ता के खेल में लोकतंत्र का चीरहरण करने में कांग्रेस भी पीछे नहीं रही। कई सीटों पर कांग्रेस ने भी बीजेपी से दलबदल कर आए उन्हीं असंतुष्टों को टिकट थमा दिया, जिनके खिलाफ उसके प्रत्याशियों ने पिछला चुनाव जीता था।

दलबदल की कसरत
जाहिर है कि दलबदल की इस कसरत में सत्ता का ‘अमृत’ पीने की हसरत है, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस ‘दलदल’ के दूसरी तरफ एक जोखिम भरा कल भी है। बिहार में तो यह आशंका बहुत मजबूती से हकीकत बनती दिख रही है। वहां मांझी की हम, उपेन्द्र कुशवाहा की आरएलएसपी, मुकेश सहनी की वीआईपी, पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी जैसे छोटे दल भले खुद को किंगमेकर कह रहे हों, लेकिन हाल के चुनाव में इनके सिमटते आधार पर माना यही जा रहा है कि यह चुनाव इनका आखिरी चुनाव भी हो सकता है। आरएलएसपी ने लोक सभा चुनाव में पांच सीटों पर चुनाव लड़ा था, उसके मुखिया उपेन्द्र कुशवाहा खुद दो सीटों से चुनाव लड़े थे, लेकिन पार्टी का खाता नहीं खुला। मुकेश सहनी की पार्टी वीआईइपी ने तीन सीटों पर उम्मीदवार उतारे, तीनों हार गए। 150 सीटों पर लड़ रही पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी को साल 2015 के विधानसभा चुनाव में 1.4 फीसदी वोट मिले, लेकिन सीट एक भी नहीं मिली। लोक सभा चुनाव में भी पप्पू यादव मधेपुरा सीट पर तीसरे नम्बर पर रहे। पांच साल पहले बने मांझी के मोर्चे ने साल 2015 के विधानसभा चुनाव में एनडीए में रहते हुए 20 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिसमें जीते तो सिर्फ मांझी। लोक सभा चुनाव में हालत और बुरी हो गई, दलबदल कर महागठबंधन के साथ तीन सीटों पर लड़े, खाता खुलना तो दूर, इस बार मांझी भी हार गए। समाजवादी जनता दल के साथ यूनाइटेड डेमोक्रेटिक सेक्युलर अलायंस बनाकर मैदान में कूदे एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की हैसियत भी इस बार राजनीतिक तौर पर नापी जाएगी। 2015 में ओवैसी ने सीमांचल की 6 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन महागठबंधन की आंधी में सबके पैर उखड़ गए थे।

बड़े दलों की बात करें, तो उनके लिए पिछले चुनाव से केवल वक्त ही पांच साल आगे नहीं बढ़ा है, बल्कि चुनौतियां भी बड़ी हो गई हैं। कोरोना काल के पहले इम्तिहान के साथ ही यह चुनाव अगले साल देश के चार राज्यों में होने वाले चुनाव पर भी असर डालेंगे। इन चार राज्यों में केरल, असम और तमिलनाडु के अलावा पश्चिम बंगाल भी है, जहां इस बार तृणमूल और बीजेपी के बीच आर-पार की लड़ाई दिखेगी। दस नवम्बर का दिन इस लिहाज से भारतीय राजनीति के लिए बेहद खास रहने वाला है।  

उपेन्द्र राय


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