जंग से घबराहट या विश्व युद्ध की आहट?

Last Updated 18 Oct 2020 12:01:35 AM IST

आर्मीनिया और अजरबैजान का झगड़ा अब चौथे हफ्ते तक खिंच गया है। दक्षिण कॉकेशस में 4,400 वर्ग किलोमीटर में फैला नागोर्नो-काराबाख पिछले 22 दिनों से जंग का मैदान बना हुआ है।


जंग से घबराहट या विश्व युद्ध की आहट?

इस पहाड़ी इलाके पर कब्जे के लिए दोनों देश एक-दूसरे पर जमकर गोले बरसा रहे हैं। तीन हफ्ते चुप रहने के बाद रूस ने पिछले शनिवार को ‘पड़ोसी धर्म’ निभाया, दोनों देशों के प्रतिनिधियों को 10 घंटे से भी ज्यादा समय तक एक साथ बैठाया, युद्ध रोकने के लिए समझौता करवाया, लेकिन यह समझौता 10 घंटे भी नहीं टिक पाया।  
पिछले महीने की 27 तारीख से शुरू हुई दोनों देशों लड़ाई सदी के सबसे बड़े संघर्ष में बदल चुकी है। दोनों देशों का दुस्साहस खतरे को और बढ़ा रहा है। आर्मीनिया ने युद्ध विराम तोड़ा, तो बदले में अजरबैजान ने उस पर मिसाइल हमला कर दिया। आशंका है कि यह हमला इस जंग का टर्निग प्वॉइंट और जंग में रूस का एंट्री प्वॉइंट बन सकता है, क्योंकि यह पहला मौका है जब अजरबैजान ने आर्मीनिया के इलाके को अपना निशाना बनाया है। रूस और आर्मीनिया कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन यानी सीएसटीओ के सदस्य हैं। यह जुगलबंदी इस बात की बुनियाद है कि अगर अजरबैजान आर्मीनिया पर हमला करेगा तो रूस उसकी सुरक्षा करेगा। इस लिहाज से यह पैक्ट आर्मीनिया को एक तरह से अजरबैजान के खिलाफ मिला रूस का कवच है। इसलिए अगर रूस औपचारिक रूप से इस जंग में शामिल होता है तो इसके व्यापक अंतरराष्ट्रीय और राजनीतिक परिणाम संभव हैं। इस लड़ाई को लेकर धीरे-धीरे ही सही, दुनिया का दो ध्रुवों में बंटना पहले से शुरू हो चुका है। रूस का लड़ाई में कूदना खेमेबाजी की रफ्तार को तेज करेगा, क्योंकि रूस आर्मीनिया का ‘शुभचिंतक’ होने के साथ ही फ्रांस और अमेरिका के साथ मिलाकर बने उस मिंस्क ग्रुप का संयुक्त अध्यक्ष भी है, जो पिछले 90 साल से इस विवाद में बीच का रास्ता निकालने में नाकाम रहा है।

इसमें फ्रांस तो खुलकर अजरबैजान की आलोचना कर रहा है, लेकिन अमेरिका फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव में व्यस्त है और बैठे-बिठाए नई मुसीबत मोल लेने के लिए तैयार नहीं दिख रहा है। रूस अभी भी संतुलन वाली राजनीति पर ही डटा हुआ है, क्योंकि उसके लिए फ्रांस और अमेरिका की तुलना में क्षेत्रीय स्थिरता की ज्यादा अहमियत है। अजरबैजान और आर्मीनिया दोनों रूसी हथियारों के खरीदार हैं। अजरबैजान की तुलना में आर्मीनिया रूस पर ज्यादा निर्भर है, लेकिन दोनों ही देशों के रूस से अच्छे संबंध हैं। इसी वजह से रूस दोनों के बीच सुलह करवाने में भी कामयाब हो गया था। ये और बात है कि जब तक दुनिया को इस सुलह की खबर मिली, तब तक कलह दोबारा शुरू भी हो गई। इसके बावजूद रूस ने अभी तक दोनों देशों के राजनीतिक या सैन्य नेतृत्व की एक भी बैठक नहीं बुलाई है।
 इस झगड़े में तुर्की का रुख दुनिया को हैरान भले नहीं कर रहा हो, लेकिन परेशान जरूर कर रहा है। तुर्की की अजरबैजान से सांस्कृतिक निकटता रही है और वो खुलकर उसका समर्थन भी कर रहा है। दशकों से उसने आर्मीनिया से जुड़ने वाली अपनी सीमाओं को सील कर रखा है। इस बार उस पर सीरिया से भाड़े के चार हजार से ज्यादा सैनिकों को अजरबैजान के पक्ष में ‘जिहाद’ के लिए भेजने के आरोप भी लग रहे हैं। युद्धविराम को लेकर भी तुर्की की सोच वही है जो अजरबैजान की है। मतलब युद्ध विराम तभी संभव है, जब आर्मीनिया विवादित इलाके से अपना कब्जा छोड़े। दिलचस्प बात यह है कि तुर्की से गोली का रिश्ता रखने वाला इजरायल भी इस जंग में उसी की बोली बोल रहा है। एक देश में सुन्नी और दूसरे में यहूदियों की बहुतायत है और दोनों अजरबैजान का साथ ही नहीं दे रहे हैं, बल्कि हथियारों की मदद से उसका हाथ भी मजबूत कर रहे हैं। इससे अजरबैजान का पलड़ा कितना भारी होगा यह तो पता नहीं, लेकिन इजरायल की सैन्य और सुरक्षा एजेंसियों की तिजोरी जरूर भारी हो रही है।
 सबसे हैरान करने वाला रुख ईरान का है जो अब तक न्यूट्रल बना हुआ है। इसकी बड़ी वजह ईरान की आंतरिक मजबूरियां हैं। 19वीं सदी की शुरु आत तक जॉर्जिया, आर्मीनिया और आज का अजरबैजान-जो उस समय अर्रान के नाम से जाना जाता था-इन सभी पर ईरान का नियंत्रण था। बाद में रूस से दो युद्ध हार जाने के बाद यह तमाम इलाका ईरान के हाथ से निकल गया, लेकिन इनकी बड़ी तादाद आज भी ईरान में रहती है। इसलिए ईरान के सामने अगर एक तरफ अजरबैजान से सभ्यता में साम्यता और शिया समुदाय की बहुलता का सवाल है, तो दूसरी तरफ उसे प्रवासी आबादी के कारण अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में आर्मीनिया की मजबूत पैठ का ख्याल भी है। अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और दमनकारी नीतियों से देशव्यापी असंतोष के बीच, ईरान अपनी जनता के बीच नाराजगी का एक और मोर्चा खोलने का जोखिम नहीं उठाना चाहता।
 सबसे बड़ा सवाल इस बात का है कि इस विवाद में भारत किसके साथ है? आर्मीनिया के साथ साल 1995 से हमारी एक दोस्ताना संधि चली आ रही है, जो हमें अजरबैजान को मिलिट्री या किसी भी तरह का दूसरा सहयोग करने से रोकती है, लेकिन दूसरी तरफ भारत सरकार ने ओएनजीसी और ओवीएल के जरिए अजरबैजान में तेल प्रोजेक्ट पर भारी-भरकम निवेश किया हुआ है। अजरबैजान की अहमियत हमारे लिए इसलिए भी है क्योंकि वो उस अंतरराष्ट्रीय नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर पर स्थित है, जो भारत को मध्य एशिया के रास्ते रूस से जोड़ता है। कश्मीर का मामला दोनों देशों से हमारे रिश्ते में एक अलग तरह की उलझन पैदा करता है। कश्मीर पर आर्मीनिया हमारे पक्ष का खुलकर समर्थन करता है, जबकि अजरबैजान न केवल हमारे विरोध में है, बल्कि पाकिस्तान के नजरिए को सही भी ठहराता है। इस लिहाज से हमारे लिए अजरबैजान के साथ नहीं खड़े दिखने की पुख्ता वजह है, लेकिन पेंच तब फंसता है जब बात क्षेत्रीय अखंडता की आती है। नागोर्नो-कराबाख में भले ही आर्मीनियाई मूल के लोगों की बहुतायत हो, लेकिन आधिकारिक रूप से वो अजरबैजान का ही हिस्सा है। भारत अगर उसकी कार्रवाई का विरोध करता है, तो इसका असर कश्मीर में दिख सकता है, जहां पाकिस्तान इस बहाने भारत को घेर सकता है। इसलिए इस मामले में भारत का रुख अब तक निरपेक्ष रहा है, जो ठीक भी दिखता है।
भारत से नागोर्नो-काराबाख की दूरी कुछ 3,750 किलोमीटर की है, इसलिए भारत इस जंग से अब तक अप्रभावित है, लेकिन जंग के मैदान से केवल 16 किलोमीटर दूर पाइपलाइनों में तेल का वो जखीरा मौजूद है, जो तुर्की के साथ-साथ यूरोप के कई देशों की जरूरत का सबसे जरूरी सामान है। इस वजह से भी हमलों के बढ़ते दायरे के बीच जिस तरह खेमेबाजी का दायरा बढ़ रहा है, उससे यह सवाल तो उठ ही रहा है कि दुनिया कहीं तीसरे विश्व युद्ध की ओर तो नहीं बढ़ चली है। यह भी दिलचस्प संयोग है कि इस समय के सूरतेहाल पहले विश्व युद्ध की परिस्थितियों से मेल भी खा रहे हैं। साल 1915 में आर्मीनिया की करीब 30 लाख ईसाई आबादी ने जर्मनी की अगुवाई वाली सेंट्रल फोर्स के बजाय मित्र देशों की सेना का साथ दिया था। आर्मीनिया को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। मुस्लिम राष्ट्र तुर्की ने आर्मीनिया में भीषण नरसंहार को अंजाम देते हुए आजादी के परवाने बने 400 ईसाई विचारकों को मौत के घाट उतार दिया था। साल 2020 में तुर्की और आर्मीनिया एक बार फिर अहम किरादार में हैं। अब बाकी दुनिया को तय करना है कि वो मानवता की ‘तबाही’ का दुस्साहस करे या फिर शांति की स्थापना का संयम दिखाए।

उपेन्द्र राय


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