सत्ता समीकरण में ट्विस्ट

Last Updated 17 Oct 2020 07:08:28 AM IST

बिहार में इन दिनों चुनाव की बहार है। सियासी समर में बाहर से तो छोटे-से-छोटे नेता की जुबान पर जीत की हुंकार है, लेकिन अंदर-ही-अंदर बड़े-से-बड़े नेता भी हार के खतरे से बेपरवाह नहीं हैं।


सत्ता समीकरण में ट्विस्ट

यह भी दिलचस्पी का विषय है कि नतीजों से पहले ही सत्ता की कुर्सी पर ‘मालिकाना हक’ जता रहा कोई भी बड़ा राजनीतिक दल अकेले दम पर चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है। साल 2000 से मुख्यमंत्री निवास से अंदर-बाहर हो रहे और अलग-अलग वजहों से छह बार बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके नीतीश कुमार की जेडीयू भी इसकी अपवाद नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में अकेले एक-तिहाई सीट जीतने वाले लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल को भी तेजस्वी की अगुवाई में ‘सियासी तेज’ दोहराने का भरोसा नहीं है। यहां तक कि एक साल पहले ही लोक सभा चुनाव में 100 फीसद स्ट्राइक रेट दे चुकी बीजेपी तक नीतीश को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बताने और जेडीयू का जूनियर पार्टनर वाला ‘कड़वा घूंट’ पीने को मजबूर है।

जीत को लेकर राज्य के तीन सबसे बड़े दलों में ‘कॉन्फिडेंस’ की इस कमी का नतीजा यह निकला है कि कुल मिलाकर छह गठबंधन चुनावी मैदान में उतर गए हैं। हालांकि मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच ही होना है। बाकी के गठबंधन कांटे के मुकाबले वाली सीटों पर ही इन दोनों की आंखों में खटकेंगे। दोनों बड़े गठबंधनों की बात करें, तो महागठबंधन के पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जोड़ी का कोई तोड़ नहीं दिखता। चुनावी मौसम में महागठबंधन में मची भगदड़ ने पहले से ही अकेले पड़े तेजस्वी यादव की तबीयत को और नाराज कर दिया है। ऐसे में फिलहाल तो सियासी रेस में एनडीए को महागठबंधन पर बढ़त साफ दिखाई देती है। लेकिन यह बढ़त सीटों में भी बदलेगी, यह नतीजों से ही पता चलेगा।

वैसे भी इस बार सत्ता के समीकरण में ट्विस्ट आ गया है। बिहार में जेडीयू, बीजेपी और आरजेडी तीन बड़े दल हैं। पिछले डेढ़ दशक से इनमें से किन्हीं भी दो दलों के साथ आए बगैर सरकार नहीं बन पाई है। लेकिन इस बार रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी बिहार की सियासत का चौथा कोण बन गई है। पासवान के बेटे चिराग पहले से ही जेडीयू के खिलाफ मोर्चा खोले बैठे थे। फिर एलजेपी के एनडीए से बाहर रहकर चुनाव लड़ने के उनके फैसले ने चुनावी जंग में ‘बगावत’ का रंग घोल दिया। इस सबके बीच रामविलास पासवान के अचानक निधन ने एलजेपी के चुनावी पलड़े को ‘वजनदार’ बना दिया है। इसका सबसे ज्यादा नुकसान जेडीयू को उठाना पड़ सकता है। हाजीपुर, जमुई, खगड़िया जैसे कम-से-कम पांच जिले ऐसे हैं, जहां दलित वोटर निर्णायक भूमिका में होते हैं। सीनियर पासवान के निधन से यहां अगर सहानुभूति की लहर बनी तो वो एलजेपी को चुनाव बाद सौदेबाजी की संजीवनी दे सकती है। हालांकि चिराग ने अपनी पिता के निधन से पहले ही इसकी गुंजाइश छोड़ रखी थी। जेडीयू के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोलने के बावजूद चिराग ने बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री मोदी की शान में अब तक कोई गुस्ताखी नहीं की है। बेशक, उन्होंने जेडीयू के साथ ही बीजेपी से आए बागियों पर भी खुलेआम दांव लगाया है, लेकिन जिस तरह वो जेडीयू के खिलाफ हर सीट पर एलजेपी प्रत्याशी उतार रहे हैं, उस लिहाज से बीजेपी के खिलाफ वैसी आक्रामकता दिखाई नहीं दी है।

चिराग का दांव
चिराग के इस ‘दांव’ से बिहार का दंगल उलझ-सा गया है। इससे बीजेपी और जेडीयू, दोनों के लिए स्थितियां असहज हो गई हैं। विरोधी दल प्रदेश की जनता के साथ ही जेडीयू समर्थकों के बीच जाकर प्रचार कर रहे हैं कि चिराग को ‘हवा’ देकर बीजेपी बरसों से मुख्यमंत्री बनाने के अपने मंसूबे को रोशन कर रही है। हालांकि बीजेपी ने खुलकर इसे नकारा है और साफ किया है कि एलजेपी अब एनडीए का हिस्सा नहीं है। लेकिन जेडीयू समर्थकों के लिए जो मायने रखती है, वो है अपने नेता नीतीश की राय जो फिलहाल अब तक सामने नहीं आई है। ऐसे में गठबंधन के तहत बीजेपी के हिस्से में आई सीटों पर जेडीयू समर्थकों के सामने धर्मसंकट खड़ा हो गया है। ऐसे वोटर अगर चुनाव में बीजेपी के बजाय महागठबंधन प्रत्याशी के पक्ष में मतदान कर आए तो बीजेपी की सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है। हालांकि वोटिंग से पहले का एक ओपिनियन पोल जरूर बीजेपी को राहत दे रहा होगा। इस पोल में बीजेपी 85 सीटों के साथ न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनती दिख रही है, बल्कि अकेले दम पर महागठबंधन पर भी भारी पड़ सकती है। इस पोल में महागठबंधन को 80, जेडीयू को 70 और एनडीए को 160 सीटें दी गई हैं।

नीतीश की सियासी राह मुश्किल

नतीजे बेशक, कुछ भी आएं, लेकिन पिछले 15 साल के कथित ‘सुशासन’ ने नीतीश की सियासी राह को आसान करने के बजाय मुश्किल ही बनाया है। बिगड़ती कानून-व्यवस्था, बाढ़ और स्वास्थ्य के मोचरे पर जनता तक सुविधाएं पहुंचाने में लापरवाही, घोटालों में जेडीयू के करीबियों की कथित हिस्सेदारी जैसी कई बातें हैं, जिनसे सरकार की छवि दागदार हुई है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, सड़क जैसे क्षेत्रों में आया बदलाव भी राज्य शासन की कोशिशों से नहीं, बल्कि केंद्र सरकार की योजनाओं से आया है। नीतीश राज्य में लगातार बड़े निवेश लाने में नाकाम रहे हैं जिससे औद्योगिक क्षेत्र में भी सुधार की उम्मीद दम तोड़ रही है। काम-धंधे को लेकर हालात ऐसे हैं कि बिहार में कहावत आम हो गई है कि बाढ़ और सुखाड़ के अलावा कुछ नहीं बचा जिससे रोजगार की संभावना हो।

सेंटर फॉर मॉनिटिरंग इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई का सर्वे बताता है कि इस साल अप्रैल में बिहार में बेरोजगारी की दर 46.6 फीसद थी। यह ठीक वही समय है जब दो जून की रोटी की उम्मीद में कोरोना से परेशान राज्य का मजदूर देश की सड़क पर धक्के खाते हुए अपने घर लौट रहा था। संसद में सरकार की ओर से जानकारी दी गई कि लॉकडाउन में 50 लाख के करीब प्रवासी मजबूर बिहार लौटे। नीतीश बेशक, इस बार के घोषणापत्र में बिहार को रोजगार हब बनाने का दावा कर रहे हों, लेकिन हकीकत यही है कि लॉकडाउन में लौटे बिहार के मजदूरों के सम्मानजनक पुनर्वास में उनकी सरकार पिछड़ी ही रही। उल्टे प्रवासियों से ट्रेन का भाड़ा वसूल कर राज्य सरकार ने उनके जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया। बेहतर भविष्य की उम्मीद में राजस्थान के कोटा गए प्रदेश के बच्चों को सुरक्षित निकालने में भी सरकार की ओर से खासी हीला-हवाली दिखी। खैर, बच्चे तो जैसे-तैसे घर लौट आए लेकिन अब मजदूर अपनी सरकार से नाउम्मीद होकर दूसरे राज्यों में जाने लगे हैं। लेकिन लाखों मजदूर अभी भी बिहार में ही हैं। वो बेरोजगार हैं और वोटर भी। आम तौर पर रोजगार की वजह से ये मजदूर चुनाव के वक्त प्रदेश से बाहर होने के कारण वोट नहीं डाल पाते थे। इस बार वो वोट डालेंगे और उनके वोट की ताकत से ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है।

लेकिन अगर जेडीयू के लिए नतीजे ओपनियन पोल से बेहतर भी आते हैं, तो भी उसके समर्थक चैन की सांस ले पाएंगे, यह दावे से नहीं कहा जा सकता। अगर सीट जीतने की रेस में जेडीयू पिछड़ जाती है और बीजेपी को मामूली बढ़त भी मिलती है तो बिहार में महाराष्ट्र पार्ट-2 भी देखने को मिल सकता है। दिलचस्प बात यह है कि इसे दोनों में से कोई भी दल अंजाम दे सकता है। एलजेपी अगर ठीक-ठाक सीटें जीत लेती है तो वो बीजेपी के लिए एक विकल्प साबित हो सकती है। दूसरी तरफ नीतीश ‘नतीजे पलटने पर साथी बदलने’ वाली तरकीब के कायल रहे हैं और ‘सियासी समरसता’ के लिए इसे एक बार फिर आजमा सकते हैं। अगर वाकई ऐसा कुछ होता है, तो राष्ट्रीय राजनीति पर इसका दूरगामी असर पड़ेगा।
 

सियासी घटनाक्रम साबित करते हैं कि बीजेपी को गठबंधन में लंबे समय तक जूनियर पार्टनर बने रहना गंवारा नहीं होता। अकाली दल और शिवसेना से दो दशकों से ज्यादा पुराना रिश्ता इसकी भेंट चढ़ चुका है। बीजेपी-जेडीयू की डोर का भी वही ठौर होगा, यह कुछ दिनों में साफ हो जाएगा। वैसे वाईआरएस से बीजेपी की बढ़ती नजदीकियों को संभावित नुकसान की एडवांस भरपाई के चश्मे से देखा जाने लगा है। बहरहाल, राजनीतिक दलों के लिए चुनाव नफे-नुकसान का खेल हो सकता है, लेकिन लोकतंत्र हमेशा इसे अपने मजबूत होने की सीढ़ी के तौर पर देखता है। बिहार चुनाव की अहमियत इस लिहाज से भी बढ़ जाती है कि कोरोना काल में यह पहला चुनाव है। इसका सफल आयोजन और मतदाताओं की अधिकतम भागीदारी उन राज्यों के लिए मिसाल बनेगी जहां आने वाले दिनों में चुनाव होना है।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment